पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१३४

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१३२ . हिंदी भाषा संशय नहीं। इसी 'म्मि' का केवल 'इ' अपभ्रंश में श्राता है। इसका सार यह निकला कि माझ, मह श्रादि 'मध्य' और 'मैं', म्मि से व्युत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार हिंदी विभक्तियों की उत्पत्ति संस्कृत तथा प्राकृत के शब्दों, विभक्तियों और प्रत्ययों से हुई है । ) यहाँ पर हम एक यात पर पुनः ध्यान दिलाना चाहते हैं। हम पहले यह बात लिख चुके हैं कि भारतवर्ष की आधुनिक प्रार्यभापानों के दो मुख्य समुदाय है-एक यहि- रंग और दूसरा अंतरंगा और पक तीसरा समुदाय दोनों का मध्यवर्ती है। बहिरंग और अंतरंग समुदाय की भाषाओं में यह बड़ा भेद है कि पहली संयोगावस्था में है और दूसरी वियोगावस्था में, अर्थात् पहली के कारक रूप प्रायः प्रत्यय लगाकर बनते हैं और दूसरी के कारक रूपों के लिये सहायक शब्दों की श्रावश्यकता होती है। जैसे-हिंदी में कारक रूप बनाने के लिये 'घोड़ा' संशा के साथ विमक्ति लगाकर घोड़े का, घोड़े को श्रादि यनाते हैं। हम यह भी दिखला चुके है कि ये 'का, को' आदि स्वतंत्र शब्द थे पर क्रमशः अपनी स्वतंत्रता खोकर अव सहायक मात्र रह गए हैं। इसके विपरीत बंगला भाषा को लीजिए, जिसमें 'घोड़े का' के स्थान में 'घोड़ार' और 'घोड़े को' के स्थान में 'घोड़ारे' होता है। यहाँ र और रे प्रत्यय लगाकर कारक के रूप बनाए गए हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि एक अवस्था में स्वतंत्र शब्द सहायक बन जाने पर भी अपनी अलग स्थिति रखते हैं, और दूसरी अवस्था में वे प्रत्यय यनकर शब्दों के साथ मिलकर उसके अंग बन गए हैं। प्रायः (भाषाएँ अपने विकास की अवस्था में पहले वियोगात्मक होती हैं और क्रमशः विकसित होते होते संयोगात्मक हो जाती हैं। बहिरंग भापाएँ भी श्रारंभ में वियोगात्मक अवस्था में थी, पर क्रमशः विकसित होती हुई चे संयोगात्मक हो गई। अर्थात् प्रथम अवस्था में शब्द अलग अलग रहते हैं; और दूसरी अवस्था में चे विकृत शब्दों के साथ मिलकर उनके अंग बन जाते हैं तथा भिन्न भिन्न संबंधों को सूचित करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि जो पहले केवल संग लगे रहते थे, वे अव अंग हो गए हैं। हम यह बात एक उदाहरण देकर स्पष्ट फरते हैं। परंतु ऐसा करने के पहले हम प्राकृत और अपनश के एक मुख्य नियम पर ध्यान दिला देना चाहते हैं। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में कुछ व्यंजन, जिनमें क और त सम्मिलित हैं, जब किसी शब्द के बीच में दो स्वरों के मध्य में पाते हैं, तब उनका लोप हो जाता है। परंतु यदि वे किसी शब्द के प्रारंभ में पाते हैं, तो उनका लोप नहीं होता, चाहे उनके पूर्ववती शब्द के अंत में स्वर हो और उनके पीछे भी