पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१५६

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विषय-प्रवेश विदेशियों का अनुसरण कर रहे हैं। मेरी सम्मति में ये पश्चिमीय कलाकारों की समता कर ही नहीं सकते-विशेष फर ऐसी अवस्था में जव कि ये उनकी त्यक्त पुरानी शैलियों का उपयोग करते हैं। इसी बीच में चे अपनी स्वतंत्र शैलियों को भूले जा रहे हैं। "श्राजकल भारतीय विद्यालयों में जो कला की शिक्षा दो जाती है, वह बहुत भद्दी है, वह अधःपतित तथा निम्न श्रेणी को होती है। हम छात्रवृत्तियाँ देकर भारतीय विद्यार्थियों को कला की शिक्षा के लिये यूरोप भेजने का प्रबंध करते हैं। मेरी सम्मति में. यह हमारी भूल है। मेरे विचार में उन्हें भारतीय कला की शिक्षा दी जानी चाहिए और उन्हें भारतीय शैली से परिचित होना चाहिए। पश्चिमीय कलाकारों की समता करने का प्रयास कभी सफल नहीं हो सकता।" अस्तु, उस अधिक व्यापक विषय को यहीं छोड़कर हमें अपने मुख्य विपय पर आना चाहिए। हमें हिंदी साहित्य के विकास का वाली इतिहास उपस्थित करना है। हम यह जानते हैं कि हिंदी साहित्य का वंशगत संबंध प्राचीन भार- साहित्य की योग्यता नीय साहित्यों से है। क्योंकि संस्हत तथा प्राकृत श्रादि की विकसित परंपरा ही हिंदी कहलाई है। जिस प्रकार पुत्री अपनी माता के रूप की ही नहीं, गुण को भी उत्तराधिकारिणी होती है, उसी प्रकार हिंदी ने भी संस्कृत, पाली तथा प्राकृत श्रादि साहित्यों में अभिव्यंजित आर्यजाति की स्थायी चित्तवृत्तियों और उसके विचारों को परंपरागत संपत्ति प्राप्त को है। इस दृष्टि से हिंदी साहित्य में जातीय साहित्य कहलाने की पूरी योग्यता है। अतएव हम पहले भारतवर्ष के जातीय साहित्य की मुख्य मुख्य विशेषताओं का विचार करेंगे और तय हिंदी साहित्य के स्वरूप का चित्र उपस्थित करने का उद्योग करेंगे। ___ समस्त भारतीय साहित्य को सबसे बड़ी विशेषता उसके मूल में स्थित समन्वय की भावना है। उसको यह विशेषता इतनी प्रमुख हिंदी की विशेषताएँ र तथा मार्मिक है कि केवल इसी के बल पर १४ाए संसार के अन्य साहित्यों के सामने वह अपनी मालिकता की पताका फहरा सकती है और अपने स्वतंत्र अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित कर सकती है। जिस प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भारत के शान, भक्ति तथा कर्म के समन्वय की प्रसिद्धि है तथा जिस प्रकार वर्ण एवं आश्रम चतुष्टय के निरूपण द्वारा इस देश में सामाजिक समन्यय का सफल प्रयास हुआ है, ठीक उसी प्रकार साहित्य तथा अन्यान्य कलाओं में भी भारतीय प्रवृत्ति समन्वय की