पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१७९

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१८० हिंदी साहित्य , लिये अधिक व्यक्तिगत तथा विशिष्ट सत्ता की आवश्यकता थी। हिंदू तो लोक-व्यवहार में सहायता पहुँचानेवाले, दुःखों का निवारण करने घाले ऐसे भगवान् का सहारा चाहते थे जो उनकी रक्षा कर सकता और जिसके चरणों पर वे कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए नत हो सकते, अर्थात् उन्हें ईश्वर की उस सगुण सत्ता की आवश्यकता थी जो लोकरंजन और लोकपालन करती है। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति करते हुए स्वामी रामानुजाचार्य ने अपने प्रसिद्ध विशिष्टाद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस मत का प्रचार दक्षिण में बहुत अधिक और उत्तर में भी कम नहीं हुआ। इसमें निर्गुण ब्रह्म के बदले सगुण ईश्वर की कल्पना की गई थी और शुष्क शान के स्थान पर सरस भक्ति का स्रोत बहाया गया था। (अद्वैत का निर्गुण ब्रह्मजव विशिष्टाद्वैत में चित् श्रचित् विशिष्ट बनाया गया, तय उसमें असीम शील तथा सौंदर्य की कल्पना हो सकी और वह भकों की उपासना का श्रालंबन धन सका । रामानुज ने शंकर के माया- वाद का विरोध किया और भक्ति के प्रवाह में माया की शक्ति बहुत कुछ क्षीण पड़ गई। यद्यपि रामानुज को भक्ति के इस मार्गनिरुपण में दक्षिण के कुछ संतों से बहुत सहायता मिली थी, पर वाद-विवाद के लिये उन्हें श्रुतियों का प्रमाण तथा गीता श्रादि के उद्धरणों का श्राश्रय लेना पड़ा। गीता में कृष्ण भगवान् के अनेक वाक्य "मामेकं शरणं प्रज", "अहम् त्वाम् सर्वपापेभ्यो मोतयिष्यामि मा शुचा" श्रादि हैं जिनसे भक्ति का मतिपादन और समर्थन करने में रामानुजजी को सहायता मिली थी। यह सव होते हुए भी हमें यह न भूल जाना चाहिए कि सिद्धांत रूप से अद्वैतवाद और विशिष्टाद्वैत में विरोध नहीं है। दोनों ही एक ब्रह्म पर विश्वास रखते हैं और दोनों ही श्रुतियों को प्रमाण मानकर चलते हैं। विशिष्टाद्वैत में लगा हुआ अद्वैत शब्द ही दोनों की तात्त्विक एकता का सबसे बड़ा प्रमाण है। गोस्वामी तुलसीदास ने "शानहि भक्तिहि नहिं कछ भेदा" कहकर मानों उस भ्रम का निवारण सा कर दिया है जो तत्त्व को न समझनेवाले हदयों में उत्पन्न हुश्मा करता है। भक्ति का यह मार्ग क्रमशः प्रशस्त हो चला और निचार्काचार्य, मध्वाचार्य तथा रामानंद श्रादि महात्माओं की वाणी से इसमें तत्कालीन हिंदु जनता की आस्था यढ़ती गई। निवार्काचार्य का सिद्धांत वही था जो रामानुज का था, पर रामानुज के विष्णु और लक्ष्मी के स्थान पर इसमें कृष्ण और गोपी का सन्निवेश हुथा। प्रेम को व्यक श्रालंयन मिल जाने के कारण जनता इस ओर विशेष आकृष्ट हुई। मध्वाचार्य का द्वैत सिद्धांत भी लगभग इसी समय प्रतिष्ठित हुश्रा, जिसके कारण