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हिंदी साहित्य

हुश्रा करते थे। महमूद गजनवी ने इसी आशय से सत्रह यार चढ़ाई की थी और यह देश के विभिन्न स्थानों से विपुल संपत्ति ले गया था। परंतु कुछ समय के उपरांत अाक्रमणकारियों के लक्ष्य में परिवर्तन हुया, वे कुछ तो धर्मप्रचार की इच्छा से और कुछ यहाँ की सुख-समृद्धिशाली अवस्था तथा विपुल धन-धान्य से आकृष्ट होकर इस देश पर अधिकार जमाने की धुन में लगे। यहाँ के राजपूतों ने उनके साथ लोहा लिया और वे उनके प्रयत्नों को निष्फल करके उन्हें बहुत समय तक पराजित करते रहे, जिससे उनके पैर पहले तो जम नहीं सको पर धीरे धीरे राजपूत शक्ति अंतर्कलह से क्षीण होती गई और अंत में उसे इस्लामी शक्ति के प्रबल वेग के आगे सिर झुकाना पड़ा। राजनैतिक हलचल के इस भीषण युग में देश की सामाजिक स्थिति कितनी शोचनीय हो गई थी, इस पर कम लोग ध्यान देते हैं। है (जय से गुप्त साम्राज्य का अंत हुश्रा था और देश सामाजिक स्थिति अनेक छोटे छोटे टुकड़ों में बँट गया था, तब से हर्षवर्धन के स्थायी राजत्वकाल के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक सारे देश को एक सूत्र में बाँधने का प्रयत्न हुश्रा. ही नहीं। उलटे गृह-कलह की निरंतर वृद्धि होती गई और विक्रम की नवीं, दसपी तथा ग्यारहवीं शताब्दियों में यह भोपण दशा अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई। स्वयं- घरों में अपने अपने शौर्य का प्रदर्शन करना एक साधारण घात थी। कभी कभी तो केवल अपना यल दिखलाने या मन बहलाने के लिये ही अकारण लड़ाई छेड़ दी जाती थी। विप्लवों और युद्धों श्रादि का यह अनंत कम समाज के लिये बहुत ही हानिकर सिद्ध हुआ। जो जीवन किसी समय ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत तथा विविध कलानो का आविर्भावक था, वह अविद्यांधकार में पड़कर अनेक अंधविश्वासों का केंद्र बन गया। जो लोग प्रासमुद्रक्षितीशों के साम्राज्य में सुख-समृद्धिपूर्वक निवास करते थे, वे अपनी रक्षा तक कर सकने में असमर्थ हो गए। सोमनाथ पर मुसलमानों के अाक्रमण का प्रतिकार न कर मदिर में छिपे रहना और अनंगपाल के हाथी के संयोगवश पीछे घूम पड़ने पर सारी सेना फा भाग खड़ा होना हिंदुओं के तत्कालीन चरम पतन का सूचक है। यद्यपि अन्य स्थानों में प्रबल वीरता प्रदर्शित करने के अनेक ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं, परंतु फिर भी जो समाज अपना भला चुरा तक पह- चानने में असमर्थ हो जाता है और जो अपने विलासी तथा अदूरदशी शासकों के ही हाथों का पुतला बन जाता है उसका कल्याण कय तक हो सकता है। फल यह हुआ कि साधारण जनता तो तत्कालीन नूप-