पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२३२

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घोरगाथा काल २२६ __पृथ्वीराजरासो समस्त वीरगाथा युग की सबसे अधिक महत्त्व- पूर्ण रचना है। उस काल की जितनी स्पष्ट झलक इस एक ग्रंथ में मिलती है, उतनी दूसरे अनेक ग्रंथों में नहीं मिलती। छंदों का जितना विस्तार तथा भाषा का जितना साहित्यिक सौष्ठव इसमें मिलता है, अन्यत्र उसका अल्पांश भी नहीं दिखाई देता। पूरी जीवन-गाथा होने के कारण इसमें वीर गीतों की सी संकीर्णता तथा वर्णनों की एकरूपता नहीं आने पाई है, वरन् नवीनता समन्वित कथानकों की ही इसमें अधि. कता है। यद्यपि "रामचरितमानस" अथवा "पद्मावत" की भांति इसमें भावों की गहनता तथा अमिनय कल्पनाओं की प्रचुरता उतनी अधिक नहीं है, परंतु इस ग्रंथ में वीर भावों की बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति हुई है और कहीं कहीं कोमल कल्पनाओं तथा मनोहारिणी उक्तियों से इसमें अपूर्व काव्य चमत्कार आ गया है। रसात्मकता के विचार से उसकी गणना हिंदी के थोड़े से उत्कृष्ट काव्य-ग्रंथों में हो सकती है। भापा की प्राचीनता के कारण यह ग्रंथ अय साधारण जनता के लिये दुरूह हो गया है, अन्यथा राष्ट्रोत्थान के इस युग में पृथ्वीराजरासो की उपयोगिता बहुत अधिक हो सकती थी। वीरगाथा काल के प्रबंध काव्यों के रचयिताओं में भट्ट केदार का जिसने जयचंदप्रकाश, मधुकर का जिसने जयमयंकजसचंद्रिका, सारंगधर का जिसने हम्मीर काव्य और नल्लसिंह का जिसने विजयपाल- रासो लिखा, उल्लेख मिलता है, जिससे यह प्रकाशित होता है कि इस प्रकार के काव्यों की परंपरा बहुत दिनों तक चली थी, पर राजपूताने में इस प्रकार की प्राचीन पुस्तकों की खोज न होने तथा अनेक ग्रंथों के उनके मालिकों के मोह, अविवेक अथवा अदूरदर्शिता के कारण अँधेरी कोठरियों में बंद पड़े रहने के कारण इस परंपरा का पूरा पूरा इतिहास उपस्थित करने की सामग्री का सर्वथा अभाव हो रहा है। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, प्रबंध-मूलक वीर काव्यों के अतिरिक्त उस काल में चीर गीतों की रचनाएँ भी हुई थीं। अनुमान पता से तो ऐसा जान पड़ता है कि उस काल की रच- नाओं में प्रबंध काव्यों की न्यूनता तथा चीररसा- स्मक फुटकर पद्यों की ही अधिकता रही होगी। अशांति तथा कोला- हल के उस युग में लंबे लंबे चरितकाव्यों का लिखा जाना न तो संभव ही था और न स्वाभाविक ही। अधिक संख्या में तो चीर गीतों का ही निर्माण हुआ होगा। युद्ध के लिये चीरों को प्रोत्साहित करने में और वीरगति पाने पर उनकी प्रशस्तियाँ निर्मित करने में चीर गीतों की