पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२३९

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२३८५ हिंदी साहित्य घोर भावों की प्रधानता व्यक्त करनेवाले इन पद्यों को हम उत्तरकालीन अपनश मान सकते हैं- . भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कतु । लज्जेज्जतु वयसिअह जइ भगगा धरु एतु ॥ १॥ पत्ते जाए कवणुगुणु अवगुणु कवणु मुएण। ____जा वप्पो की भुंइडी चपिज्जइ अवरेण ।। २ ॥ इसके साथ यदि हम चंद घरदाई के निम्नलिखित पद्यों को मिला- कर देखें तो दोनों की समता का बहुत कुछ ज्ञान हो सकता-. उचिष्ठ छ द चदह बयन सुनत सुजपिय नारि । तनु पवित्त पावन कविय उकति अनूठ उधारि ।। ताड़ी खुल्लिय ब्रह्म दिक्खि इक असुर अदभुत । दिग्य देह चख सीस मुप्प करुना जस जप्पत ।। इन पदों के रचनाकाल में हिंदी का रूप स्थिर हो चुका था और उसका विकास भी होने लगा था। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में चंद का आविर्भाच हो चुका था और इस बात का ध्यान रखते हुए यह कहा जा सकता है कि हिंदी की उत्पत्ति उसके सी डेढ़ सौ वर्ष पहले हो गई होगी। यदि ऐसा न होता तो पृथ्वीराजरासो जैसे महाकाव्य की रचना नितांत सद्यःप्रसूत भाषा में करने की कल्पना भी किसी को न हो सकती। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता श्री काशीप्रसाद जायसवाल महोदय ने बुद्धिसेन नामक जैन कपि फी, विक्रम के दस शतक की, अपनश कविता के साथ पुरानी हिंदी का साम्य दिखाते हुए उसकी उत्पत्ति उसी काल में बतलाई है। यदि हिंदी की उतनी अधिक प्राचीनता न भी स्वीकार की जाय, तो भी यह निश्चय है कि विक्रम के ग्यारहवे शतक में हिंदी का बीजारोपण अवश्य हो गया था और इसके उपरांत उसका रूप बहुत कुछ स्थिर होता रहा और उसके व्याकरण की प्रतिष्टा भी होती रही। उसके यहुत कछ विकसित हो जाने पर उसमें फपिता भी रची जाने लगी, श्रीर चंद घरदाई के पृथ्वीराजरासो महाकाव्य रचने के समय तक उसका पर्याप्त विकास हो गया था। देशभेद के कारण जिस प्रकार प्रारत के शौरसेनी, मागधी, महाराषी, पशाची श्रादि तथा अपभ्रंश के नाग, उपनागर, ग्राचई श्रादि अनेक विभेद हो गए थे, उसी प्रकार प्रारंभिक हिंदी भी किसी एका रुप में नहीं रही होगी। परंतु साहित्य-ग्रंथों की अधिकता आदि के कारण जिस प्रकार प्रारतों में महाराष्टी प्रारत और अपनशों में नागर अपनश को प्रधानता मिली थी और येयाकरणों ने उन्हीं का