पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२५९

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हिंदी साहित्य गोरसनाथ की रचनाओं में ससिहर, महियल, पयाल, अजरावर श्रादि शब्द उनकी प्राचीनता के द्योतक हैं। इनकी भाषा में कई प्रांतों का प्रभाव दिखलाई देता है। 'पायल नी डीबी सुन चढ़ाई में 'नी' गुजराती का है। 'सर्व कमाई सोई गुरु यानी चै बोलै' में चै मराठी का है। इसके अतिरिक्त राजस्थानीपन उसमें सर्वत्र दिसलाई देता है। 'पवन गोटिका रहणि अकास' की 'रहणि' में का 'ए' उसी .का द्योतक है। बोलिया, चलिया, रहिया, करिया, राजस्थानीपन और प्राचीनता दोनों के द्योतक है:- हबकि न वालिया, ठबकि न चलिया धीरे धरिया पाएँ । गरत न करिबा, सहजै रहिना, भएत गोरस रा ॥ इसका कारण यह जान पड़ता है कि योगियों को नित्य भ्रमण करना पड़ता था ये स्नेह-बंधन के डर से अधिक समय तक एक स्थान पर नहीं रहा करते थे। उन्हें प्रांत प्रांत में घूमना पड़ता था, जिसके फल-स्वरूप अन्य प्रांतों की भाषा का भी उनकी रचनाओं में अपने श्राप मिश्रण हो गया। यह भी संभव है कि यह प्रभाव गोरखनाथ के अनुयायो अन्य प्रांत के लेखकों की करतूत हो। । ___ गोरखनाथ के ही समय में जालंधरनाथ, कणेरीपाव, चौरंगीनाथ तथा सिद्ध घोड़ाचोलो आदिकों ने भी योग-काव्य की रचना की। चौरंगीनाथ और, घोड़ाचोली गोरखनाथ के जालघर, कणेरी आदि ना आदि गुरुभाई थे। जालंधरनाथ मछंदरनाथ का गुरु- भाई और कणेरी जालंधर का शिष्य था। भोटिया परंपरानों में जालंधरनाथ को आदिनाथ की उपाधि दी गई है और वे गोरखनाथ के गुरु मछंदरनाथ के गुरुभाई माने गए हैं। कहते हैं कि तंजूर में इनके मगही भाषा के सात ग्रंथ मिलते हैं। . ।। कणेरी का असली नाम आर्यदेव था। ये विहार के रहनेवाले थे। भिक्षु होने के याद कुछ समय तक नालंदा में भी रहे थे। ये नागार्जुन के शिष्य थे। हो सकता है कि मछंदरनाथ से भी इन्होने उपदेश ग्रहण किया हो। इनकी एक कविता में ये 'श्रादिनाथ नाती मछिंद्रनाथ पूता' कहे गए हैं। श्राजकल के सपेरे इन्हीं की शिष्य परंपरा में बतलाए जाते हैं। समरह लहरया पार पाइए मनवानी लहरया पार न पाइए रे लो। श्रादिनाय नाती मछिद्रनाथ पूता जती पणेरी हम बोल्या रे लो। इन लोगों की कविता के संबंध में भी यही बात कही जा सकती हैं जो गोरखनाथ की कविता के संबंध में ऊपर कही गई हैं। अन्य प्रांतीय भापानों के प्रयोग इत्यादि इनमें भी पाए जाते हैं।