पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२७२

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२७१ भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा विभाग नहीं हो सकते। उन्होंने किसी नामधारी धर्म के बंधन में अपने आपको नहीं डाला और स्पष्ट शब्दों में संकीर्ण सांप्रदायिकता का खंडन किया। पर समय पाकर हिंदुओं के पौराणिक विचारों का प्रभाव इन सव संत महात्माओं के संप्रदायों पर पड़ा। क्रमशः इन प्राचार्यों के कल्पित या वास्तविक चित्र बनाए गए और विधिवत् उनकी पूजा अर्चा होने लगी, साथ ही सगुणोपासना के अन्य उपचारों-जैसे, माला, श्रासन, कमंडल श्रादि-का भी इन संप्रदायों में उपयोग होने लगा। सारांश यह कि हिंद धर्म की जिन बातों का इन संत-संप्रदायों के श्राचार्यों ने बड़ा तीन खंडन किया उन्हें ही पीछे से उनके अनुयायियों ने ग्रहण किया और उन्हें भिन्न भिन्न संप्रदायों के अंग के रूप में प्रति- ष्ठित किया। क्रमशः कवीर, दादू आदि संतों के अनेक संप्रदाय चल पड़े जिनमें धार्मिक संकीर्णता का पूरा पूरा प्रवेश हुआ। यद्यपि संत श्रलोकोपयोगी पनि कवियों के उपदेशों में बड़ी उदारता और तात्त्विक " व्यापकता है, परंतु उनके अनुयायियों की दृष्टि उसे ग्रहण नहीं कर सकी। इसमें पाश्चर्य की कोई बात नहीं है। इन महात्माओं की वाणी में वैयक्तिक साधना के उपयुक्त ऊँचे से ऊँचे सिद्धांत है, पर वैयक्तिक साधना के उपयुक्त होने के कारण ही लोक- बाह्य भी हैं। सामान्य सामाजिक व्यवस्था में जो ऊँच नीच के भेद होते हैं, उसमें जो अनेक विधि-निषेध रखे जाते हैं, उनसे समाज के संचालन में सहायता ही नहीं मिलती, राष्ट्रीय विकास के लिये भी थे परमोपयोगी हैं। उनका समुचित पालन न होने से समाज में उच्छ- खलता फैल जाती है जिससे उसका हास होता है। संत कवियों की पाणी में लोकभावना पर उतनी दृष्टि नहीं रखी गई है जितनी व्यक्तिगत विकास पर। परंतु व्यक्तिगत विकास का वास्तविक श्राशय थोड़े से लोग ही समझ सकते हैं, सारा समाज उसका अधिकारी नहीं होता। भक संतों के उपदेशों से अनुचित लाम उठाकर "हरि को भजे सो हरि का होई " के सिद्धांत को साधारण सामाजिक जीवन में व्यवहृत करने की चेष्टा की जाने लगी जिससे कोई शुभ परिणाम नहीं निकल सका। गोस्वामी तुलसीदास ने इस प्रकार की चेप्टानों का तीव्र प्रतिवाद किया था। इन संत कवियों की उपासना निराकारोपासना थी; अतएव उनकी वाणी में अपने उपास्य के प्रति जो संकेत मिलते हैं, वे केवल श्रामास के रूप में हैं और रहस्यात्मक हैं। जय भक्ति का श्रालंबन