पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२७९

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हिंदी साहित्य जयपुर प्रांत के अंतर्गत भराने की पहाड़ी नामक स्थान में हुई थी और यही स्थान अय तक दादूपंथियों का मुख्य केंद्र बना हुश्रा है। दादू का प्रचारक्षेत्र अधिकतर राजपूताना तथा उसके आसपास का प्रांत था; अतः उनके उपदेशों की भाषा में राजस्थानी का पुट पायो जाता है। संत कवियों की भांति दादू ने भी साखियाँ तथा पद आदि कहे हैं जिनमें सतगुरु की महिमा, ईश्वर की व्यापकता, जाति-पाति की अवहेलना श्रादि के उपदेश दिए गए हैं। इनकी वाणी में कबीर की वाणी से सरसता तथा तत्त्व अधिक है, यद्यपि ये कवीर के समान प्रतिभाशाली नहीं थे। कबीर तर्कप्रिय थे; अतः उन्हें तार्किक की सी कठोरता भी धारण करनी पड़ी थी, परंतु दादू ने हृदय की सच्ची अनुभूतियों का ही अमिव्यंजन किया है। इनकी मृत्यु संवत् १६६० में हुई थी। प्रारंभ- काल के संत कवियों में ये पढ़े-लिखे जान पड़ते हैं। मलूकदास औरंगजेब के समकालीन निर्गुण भक्त-कवि थे। "अज- गर फरै न चाकरी पंछी करै न काम" याला प्रसिद्ध दोहा इन्हीं की रचना है। इनकी भाषा साधारण संत कवियों " की अपेक्षा अधिक शुद्ध और संस्कृत होती थी और इनको छंदों का भी ज्ञान था। रतखान तथा शानबोध नाम की इनकी दो पुस्तके प्रसिद्ध है, जिनमें वैराग्य तथा प्रेम आदि की मनोहर वाणी व्यक्त की गई है। एक सौ आठ वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु सं० १७३६ में हुई थी। ये कड़ा जिला इलाहाबाद के निवासी थे। इन संत कवियों में सबसे अधिक विद्वान् तथा पंडित कवि सुंदर- दास हुए। सुंदरदास दादूदयाल की शिप्य-परंपरा में थे। इनका मदरदास अध्ययन विशेष विस्तृत था। इन्होंने काशी में . आकर शिक्षा प्राप्त की थी। सुंदरदास की भापा शुद्ध काव्य-भापा है और उनकी वाणी में उनके उपनिषदों श्रादि से परि- चित होने का पता चलता है, परंतु कवीर श्रादि की भांति उनमें स्वभाव. सिद्ध मौलिकता तथा प्रतिभा अधिक नहीं थी, इससे उनका प्रभाव भी विशेप नहीं पड़ा। संदरदासके अतिरिक्त संतों में अक्षर अनन्य, धर्मदास, जगजीवन श्रादि का नाम भी लिया जाता है, साथ ही तुलसी साहय, . गोविंद साहय, भीखा साहय, पलटू साहय आदि अनेक संत हुए जिनमें से अधिकांश का साहित्य पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। परंतु संतों की परंपरा का अंत नहीं हो गया और न्यूनाधिक रूप में वह घरा- पर चलती रही, और अब तक चली जा रही है। *