पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/२९८

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• हिंदी साहित्य २६८ वैष्णव भक्ति में अनेक शाखा-भेदों के होते हुए भी, सामान्य एकता थी। यहाँ हमारा संबंध वैष्णव भक्ति की शाखा-प्रशाखाओं से उतना ही है, जितना हिंदी साहित्य के विकास में वे सहायक हुई हैं। कवीर और जायसी आदि के प्रसंग में हम वैष्णव भक्ति का प्रभाव दिखा चुके हैं। अब हम हिंदी साहित्य के उस काल में प्रवेश करते हैं जिसमें इस नवीन भक्ति का अधिक से अधिक प्रभाव पड़ा और वह घर घर में व्याप्त हो गई। कुछ तो तत्कालोन मुसलमान शासकों की उदार नीति, कुछ हिंदुओं की निराशाजनक स्थिति, और सबसे अधिक महाकवियों तथा महात्माओं का उदय भक्ति के प्रसार में अत्यधिक सहायक हुआ। समाज की दशा सुधरी, उसे मनोवल मिला। इस प्रकार एक ओर तो भक्ति की प्रेरणा से हिंदी कविता में अभूतपूर्व सहायता प्राई और दूसरी ओर हिंदी कविता का साधन पाकर भक्ति की ज्योति चारों ओर फैली जिससे हिंदू जीवन उद्दीप्त हो उठा। रामभक्ति और कृष्णभक्ति, वैष्णव भक्ति को ये दोनों शाखाएँ हिंदी-साहित्योद्यान में खूब फैली, जिससे जनता का मन हरा भरा हुआ। समयानुक्रम के अनुसार हम रामभक्ति का उल्लेख पहले करेंगे। वैष्णव भक्ति को रामोपासिका शाखा का श्राविर्भाव महात्मा रामानंद ने विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में किया था। . • यद्यपि रामानंद के पहले भी नामदेव तथा त्रिलोचन रामानदी संप्रदाय ५ आदि प्रसिद्ध भक्त हो चुके थे, पर उन्होंने भक्ति- श्रांदोलन को एक नवीन स्वरूप देकर तथा उसे अत्यधिक लोकप्रिय और उदार बनाकर हिंदूधर्म के उन्नायकों में सम्माननीय स्थान पर अधिकार पाया। कवीर, तुलसी और पीपा आदि उनके शिष्य अथवा शिष्यपरंपरा में थे, इससे भी उनके महत्त्व का अनुमान हम अच्छी तरह कर सकते हैं। महात्मा रामानंद स्वामी रामानुज के श्री-संप्रदाय के अनुयायी थे, यह बात जनश्रुतियों से भी ज्ञात होती है और दोनों की रचनाओं की समता से भी। श्रीवैष्णवों के यहाँ विष्णु के कृष्ण, राम तथा नृसिंह आदि अवतारों की उपासना करने की रीति प्रचलित थी, यद्यपि प्रधानतः उनका मुकाय कृणोपासना की ओर ही अधिक था। महात्मा रामानंद ने राम और सीता को, इष्टदेव मानकर उनकी पूजा की और हनुमान, भरत श्रादि रामभक्तों के भी वे भक्त बने। इस प्रकार यद्यपि कई श्राराध्य देव होते हैं, पर ये राम के संबंध से ही सम्मान्य समझे जाते हैं, अन्यथा नहीं। रािम की उपासना उन्हें परब्रह्म मानफर की गई।