पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३००

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३०० हिंदी साहित्य प्रतिफलित हुई है। महात्मा शंकर ने अद्वैतवाद का उपदेश देकर जिस दार्शनिक साम्य की प्रतिष्ठा की थी उसके अनुसार जीवात्मा प्रखंड और अभेद मानी गई थी। स्वामी रामानुज के विशिष्टाद्वैत का शंकर स्वामी के अद्वैतवाद से इस विषय में अभेद है। वे भी जीव का साम्य स्वीकृत करते हैं। हिंदुओं का वर्णविभाग सामाजिक कार्य विभाग की दृष्टि से • चला था, तात्त्विक दृष्टि से तो सयको समानता स्वीकृत की गई थी। हाँ, स्वामी रामानंद तथा अन्य प्राचार्यों में इतना विभेद अवश्य है कि उन्होंने पहले की अपेक्षा अधिक अग्रसर होकर घोषणा की कि धर्म में जातिभेद नहीं है, और इस सिद्धांत के अनुसार अपने शिष्यों में सभी पणों को सम्मिलित किया। यह सब कुछ होते हुए भी हम यह नहीं भूल सकते कि रामानंद ने भक्ति के अधिकार की दृष्टि से जाति के झमेले को दूर किया है, पर समाज में उन्हें जातिभेद स्वीकार था। यह बात उनके वेदांत-सूत्रों के भाग्य से स्पष्ट हो जाती है। स्वामी रामानंद के दार्शनिक विचारों और सिद्धांतों का निरूपण करना कठिन है। यह तो ठीक है कि स्वामी रामानुज की ही भांति चे भी वैष्णय भक्त थे, अतः शंकराचार्य के ज्ञानमार्ग में निरूपित अद्वैतवाद से उनके सिद्धांतों में विभेद होना स्वाभाविक है। रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद भक्ति के उपयुक्त था, अतएव भक्त रामानंद भी इसी सिद्धांत के समर्थक होंगे, ऐसा अनुमान होता है। रामानंदजी की शिष्य-परंपरा द्वारा निर्मित साहित्य का अनुसंधान करने पर भी संदेह ही बना रहता है। एक ओर तो कवीर, नानक आदि निर्गुण संत हैं जिन्होंने राम को निर्गुण सगुण सबके ऊपर मान- कर अपने अद्वैतवादी होने का परिचय दिया है और दूसरी ओर तुलसी. दास हैं जिन्होंने अयोध्या के नृपति दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम को अपना इष्टदेव बनाया और भक्तिभाव से उनका चरित्र अंकित किया। कहीं कहीं तो कवीर श्रादि संत अद्वैतवाद से नीचे उतरते, अपने आराध्य देव में गुणों का आरोप करते और स्वयं भक्त वनकर उसे भक्तवत्सल कहते हैं। इसी प्रकार महात्मा तुलसीदास भी यद्यपि दासभाव से उपासना करते हुए ईश्वर तथा जीव में विभेद की व्यंजना करते हैं, पर साधना की उच्च श्रेणी पर पहुँचकर वे कभी कभी सारे जगत् को राममय देखते और इस प्रकार अद्वैत की ओर संकेत करते हैं। अतः हम देखते हैं कि स्वामी रामानंद की शिष्यपरंपरा में श्रद्वैत तथा विशिष्टाद्वैत मतों का सम्मिश्रण हुआ है। भक्तिभावापन्न व्यक्तियों के लिये यह स्वाभाविक ही है। हाँ, यह अवश्य स्वीकार करना पड़ता है कि स्वामी रामानंद की