पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३२७

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कृष्णभक्ति शाखा ३२६ के अनुसार मंदिरों का निर्माण कर सकता था। जनता की समृद्धि से मंदिर निर्माण में और भी सहायता मिली थी। परंतु अकबर के उपरांत परिस्थिति बदली। अकबर की भांति सहृदयता और उदार मनोभावों पाला दूसरा नृपति दिल्ली के सिंहासन पर नहीं पैठा। साथ ही धन- संपत्ति की वृद्धि से स्वभावतः विलास की ओर अधिक प्रेरणा मिली। हिंदी साहित्य भी अव अधिक प्रौढ़ हो चुका था। उपर्युक्त कारणों से साहित्य का प्रवाह धार्मिक क्षेत्र से निकलकर दूसरी ओर वहा । रीति- ग्रंथों और मुक्तक भंगारिक रचनाओं की ओर प्रवृत्ति बढ़ी। परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि उस काल के उपरांत कृष्णोपासना का क्रम एकदम से हट गया और भक्तिकाव्य की रचना सर्वदा बंद हो गई। ऐसा नहीं हुभा, भंगार की वृद्धि में शुद्ध भक्ति एकदम खो नहीं गई। वल्लभाचार्य की पांचवीं पीढ़ी में भकवर नागरीदास हुए जिनके रचे ७३ भक्ति-ग्रंथ मिले हैं। उनकी रचनाएँ उच्च कोटि की हैं। उनके अति- रिक्त विष्णु स्वामी संप्रदाय में अलबेली अली नामक भक्त कवि विक्रम फी अठारहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में हुए। इनकी "समय प्रबंध पदावली" बड़ी ही सरस और भावपूर्ण रचना है। इन्हीं के सम- फालीन राधावल्लभी संप्रदाय में चाचा हितवृदावनदास हुए जिनका पदों का विस्तृत संग्रह प्राप्त हुआ है। यद्यपि इनकी रचनाओं में बहुत से पुराने भक्तों के भाव श्राप हैं, पर इनकी इतनी अधिक कृतियों में मौलिक उद्भावनाएँ भी कम नहीं हैं। ब्रजवासीदास का प्रसिद्ध ग्रंथ "नजविलास" प्रबंधकाव्य की शैली पर दोहे चौपाइयों में लिखा गया, पर इसमें इस काल की भक्ति का हास बोल रहा है। ग्रंथ साधारण जनता में थोड़ी सी प्रसिद्धि पा सका। इसके अतिरिक्त सयलसिंह चौहान ने महाभारत का अनुवाद किया, पर उन्हें भक्त-कवि मानना ठीक न होगा। अाधुनिक युग भक्ति का नहीं है, परंतु ब्रजभाषा के कुछ कवियों ने कृष्णसंबंधी कविता को है । स्वर्गीय पंडित सत्यनारायण कविरत के कुछ पदों में कृष्ण-भक्ति की अच्छी झलक देख पड़ी, पर उनकी असमय मृत्यु से वह अधिक स्थायी न हो सकी। वर्तमान कवियों में वियोगी हरिजी के कुछ गद्य-काव्यों में कृष्ण के प्रति स्नेह देख पड़ता है। गद्य- काव्यों में ही नहीं, कुछ फुटकर पदों में भी इन्होंने भक्तों की भांति अपने कृष्णानुराग की व्यंजना की है जो सुंदर भी हुई है। कुछ अन्य भक्त भी हैं। पर उनकी रचनाएँ साहित्यकोटि में नहीं आतीं। कृष्ण के जीवन के एक अंश को लेकर पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय ने "नियमवास" ४२