पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३५८

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हिंदी साहित्य तो देहाती कवियों की विशेषता हो रही है। यह केवल एक श्रेणी के लोगों की बात है। जो लोग अभी सनातन परंपरा का पालन करते जा रहे हैं, जिन लोगों ने कविता को मनोरंजन श्रीर चमत्कार प्रदर्शन का साधन बना लिया है, जिन्हें अब भी देहातों के बाहर निकलकर प्रगतिशील समाज की कृतियों को देखने का अवसर नहीं मिला है, और जो अब भी देश के कुछ कोनों में छिपे हुए विलासी रईसों से यथासमय थोड़ा बहुत झटक लेने के फेर में रहते हैं, उनके लिये कविता कामिनी का वही रूप अब भी बना है जो भारतीय जन-समाज के उस अवनत युग में था। परंतु संतोप की बात इतनी ही है कि ऐसे लोगों की सरया प्रतिदिन घटती जा रही है और श्रव साहित्यसंबंधी व्यापक और उच्च विचारों का भी प्रचार होने लगा है। कुछ लोगों का कथन है कि हिंदी की भंगार-परंपरा का अंत करके उसमें नवीन युग का आविर्भाव करनेवाले कारणों में सबसे प्रधान कारण अँगरेजों का भारतवर्ष में थागमन है। उनके मत से अंगरेजों ने इस देश में आकर यहां के लोगों को शिक्षित किया और उन्हें देश-प्रेम करना सिखलाया। यहीं से देशप्रेम की भावना से सम- न्वित साहित्य को सृष्टि हुई। इस बात को हम दूसरे रूप में स्वीकार करते हैं। यह ठीक है कि अँगरेजी राज्य के भारतवर्ष में प्रतिष्ठित होने पर हमारे हृदयों में जाति-प्रेम, देश-प्रेम नादि के भाव बढे पर इसके लिये हम अँगरेजों के कृतज्ञ नहीं, उनकी कूट नीति के कृतज्ञ हों तो हो। विदेशी शासन के प्रतिष्ठित होने पर विजयी देश की रीति- नीति और श्राचार-व्यवहार की छाप विजित देश पर श्रवश्य पड़ती है, पर जय विजेता अपने साहित्य और धर्म का प्रच्छन्न या प्रकट रीति से प्रचार करता और विजित के साहित्य प्रादि को अनुन्नत बतलाता है, तव थोड़े समय के लिये उसका यह प्रपंच नीति भले ही सफल हो, पर जब उसकी पोल खुल जाती है और जय विजित देश अपने पूर्व-गौरव का स्मरण कर जाग उठता है तब सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक आदि प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिघात की प्रवल लहरें उठने लगती है, जिसके सामने विदेशीय अाक्रमणकारियों की प्रवंचना नहीं चल सकती। वह काल सर्वतोमुखी हलचल का होता है, क्योंकि उस काल में पराधीन देश अपनी संपूर्ण शक्ति से दासता की वेड़ियों को तोड़ फेकने की चेष्टा करता है और रूढ़ियों के प्रतिकूल प्रबल आंदोलन करके सफलता प्राप्त करता है।