पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३६२

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३६२ हिंदी साहित्य दृष्टि से हरिश्चंद्र का स्थान हिंदी-साहित्य में कितना ऊँचा है इसका अनुमान हम तभी कर सकेंगे जब उनके पीछे की साहित्यिक प्रगति में हम उनके प्रभाव का साक्षात्कार करेंगे और उनके समसामयिक ममी फवियों में उनकी अमिट छाप देखेंगे। शृंगारिक कविता की प्रबल वेग से यहती हुई जिस धारा का अवरोध करने में हिंदी के प्रसिद्ध घीर कवि भूषण समर्थ नहीं हुए थे, भारतेंदु उसमें पूर्णतः सफल हुए। इससे भी उनके उच्च पद का पता लग सकता है। ___ हरिश्चंद्र के उपरांत हिंदी के कवियों की प्रवृत्ति अँगरेजी की लीरिक कविता के अनुकरण में छोटे छोटे गेय पद यनाने और उन्हें पनों अनि में प्रकाशित करने की ओर हुई। लीरिक कविता में श्रात्माभिव्यंजन की प्रधानता रहनी चाहिए पालीन व्यक्ति पर हिंदी के तत्कालीन कविताकारों में यह बात कम देखी जाती है। न तो विपयों के उपयुक्त चुनाव की दृष्टि से और न तन्मयता की दृष्टि से उनकी रचनाएँ श्रेष्ठ लीरिक कविताओं में गिनी जा सकती हैं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि शिक्षा श्रादि विषयों पर कविता लिखनेवाले व्यक्ति में काव्य की सच्ची प्रेरणा कम होती है, निबंध- रचना फा भाव अधिक होता है। हिंदी के उस फाल के कवियों ने ऐसे ही विषयों पर कविता की, जिससे जन-समाज में जागर्ति तो फैली, पर कविता का विशेष कल्याण न हो सका। फाव्य के लिये निबंधों की सी धुद्धिगम्य विचारप्रणाली की श्रावश्यकता नहीं होती, भावों को • उच्छ चसित करना श्रावश्यक होता है। अनेक प्रमाणों को एफन कर पद्य का ढांचा खड़ा करना कविता नहीं है, और चाहे जो कुछ हो। उस काल की हिंदी कविता में समाजसुधार और जातीयता का इतना हद प्रभाव पड़ चुका था कि उनके प्रभाव से मुक्त होकर रचना करना किसी कवि के लिये संभव नहीं था। श्रय तक ब्रजभापा ही कविता का माध्यम थी और कवित्त सवैया धादि छंदों का ही अधिक प्रयोग होता था। पर इस समय के लगभग भाषा के माध्यम में परिवर्तन किया गया। ब्रजभाषा के बदले खड़ी बोली का प्रयोग होने लगा। इस समय तक खड़ी बोली हिंदी गद्य की प्रच- लित भाषा हो चुकी थी, पर पद्य में अपनी कोमलता और सौंदर्य के कारण ब्रजभाषा ही व्यवहार में लाई जा रही थी। खड़ीबोली के पक्ष- पातियों का सबसे बड़ा तर्फ यही था कि वोलचाल की जो भापा हो उससे विभिन्न मापा का प्रयोग कविता में न होना चाहिए। यहां हम इस तर्क को उपयुक्तता पर कुछ भी नहीं कहेंगे। पर पढ़ी-लिखी जनता