पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३६४

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३६४ हिंदी साहित्य प्राकृतिक दृश्यों के साथ प्रांतरिक अनुराग प्राप्त कर लिया था। इस अनुराग की स्पष्ट झलक उनकी रचनाओं में देख पड़ती है। पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय और पंडित नाथूराम शंकर शर्मा हिंदी के उन प्रसिद्ध कवियों में हैं जिन्होंने द्विवेदीजी के प्रभाव के बाहर उपाध्यायजी और रहकर काव्य-रचना की। अपने प्रारंभिक कविता- काल में उपाध्यायजी व्रजमापा में कविता करते नाथूरामजीथे पर धागे चलकर उन्होंने संस्कृत पदापली का श्राश्रय लेकर संस्कृत वृत्तों में प्रियप्रवास की रचना की। प्रियप्रवास में उपाध्यायजी की कवित्व-शक्ति बड़ी सुंदर देख पड़ी थी और उसके कुछ स्थलों में काव्यत्व उच्च कोटि का मिलता था, जिसे देखकर उनके उज्ज्वल भविष्य की कल्पना की गई थी, परंतु प्रियप्रवास की रचना के उपरांत उन्हें काव्य में मुहावरों का चमत्कार दिखाने तथा उपदेशों और व्यंग्यों द्वारा समाजसुधार करने की धुन सवार हुई। कवि न बनकर वे समाजसुधारक, उपदेशक और मुहावरों के संग्रहकार बन गए। यह ठीक है कि उनकी देर की देर रचनाओं में कुछ छोटी छोटी कृतियाँ अंत:- करण की कृत्रिम प्रेरणा से लिखी जाने के कारण अच्छी बन पड़ी हैं, पर. अधिकांश कवितार बनावटी और परिश्रमपूर्वक गढी हुई जान पड़ती हैं। प्रियप्रवास में भी संस्कृत छंदों का श्राश्रय लेने के कारण उनको भापा और उसके व्याकरण की तोड़-मरोड़ करनी पड़ी है। इससे प्रसाद गुण का प्रभाव हो गया है। अब भी यदि उपाध्यायजी कविता के उच्च लक्ष्य की ओर ध्यान देकर प्रियप्रवास की ओर फिरें तो उनसे हिंदी का गौरव बढ़ सकता है। यह प्रायः देखा जाता है कि प्रौढ़ता की ओर अग्रसर होते हुए लेखक या कवि में भावों की प्रचुरता तथा शब्दों की संकीर्णता हो जाती है। इसके कहने का यह तात्पर्य है कि थोड़े थोड़े शब्दों में गूढ़ से गूढ़ भावों का व्यंजन किया जाता है। उपा- ध्यायजी इस नियम के अपवाद देख पड़ते हैं। पंडित नाथूरामजी शमी विलक्षण शब्दनिर्माता और कवि हैं। आर्यसमाजी होते हुए भी उनकी सय कविताएँ सांप्रदायिक नहीं हो गई हैं और कुछ में तो उत्तम कोटि के कवित्व की झलक मिलती है। शृंगार-रस के पद्माकरी कवियों की भौति भी इन्होंने कुछ कविताएँ की, पर ये उनके योग्य नहीं कही जा सकतीं। घावू मैथिलीशरणजी गुप्त आधुनिक खड़ी वोली के सबसे प्रसिद्ध मैथिलीशरणजीत और प्रतिनिधि कवि है। पंडित महावीरप्रसाद " द्विवेदी के प्रभाव में रहकर उन्होंने अपनी भाषा का बड़ा ही सुंदर और परिमार्जित रूप खड़ा किया। द्विवेदीजी की ही