पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३६५

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३६५ अाधुनिक काल . भांति उनकी भाषा में संकृत का पुट रहता है पर "प्रियप्रवास" की भांति वह अतिशय संस्टातगर्भित नहीं होता। उर्दू के बहुत ही थोड़े शब्दों को ग्रहण करने के कारण वे पंडित गयाप्रसाद "सनेही" जी की उर्दू मिश्रित कविताशैली से भी विभिन्न रूप में हमारे सामने पाते हैं। भाषा की दृष्टि से उनका मध्यम मार्ग ही कहा जायगा। उनकी पहली रचना भारत- भारती श्रव भी अनेक देशप्रेमी नवयुवकों का कंठहार हो रही है, और कितने नवसिखुप कवि अब भी उसका अनुकरण करते देखे जाते हैं । पर काव्य की दृष्टि से उसका विशेष महत्त्व नहीं है। काव्य की दृष्टि से उनका जय- द्रवध खंड-काव्य उत्कृष्ट हुआ है। उसमें धीररस का पूर्ण परिपाक और बीच बीच में करुणरस के सुंदर छींटे देखकर मन रसमग्न हो जाता है। अपनी "हिंदू" शीर्पक कविता-पुस्तक में गुप्तजी उपदेशक बनकर "गीता" का अनुकरण करते देखे जाते हैं। पर सामयिक प्रवाह में पड़कर ऐसी कविता की सृष्टि करने के लिये हम उन्हें दोप नहीं दे सकते । आधुनिक रचनाओं मे पंचवटी सर्वश्रेष्ठ है। उसमें लक्ष्मण का चरित्र वड़ा ही उज्ज्वल चित्रित हुया है और पूरी पुस्तक में सुंदर पद्यों की अनोखी छटा देख पड़ती है। मैथिलीशरण गुप्तजी ने 'साकेत', 'यशोधरा' और 'द्वापर' नामक काव्यों को भी रचना की है। साकेत महा- काव्य है। उसमें साकेत (अयोध्या) को केंद्र यना कर रामकथा का. वर्णन किया गया है। कवि राम-लक्ष्मण-सीता के साथ धन नहीं जाता, भरत, शत्रुघ्न, मांडवी, श्रुतिकीर्त, उर्मिला श्रादि के साथ अयोध्या ही का वर्णन करना अपना उद्देश्य बनाता है। विशेषतया उर्मिला के चरित्र से कवि अधिक अपनाव दिखलाता है। इस महाकाव्य में स्थल स्थल पर कवि की प्रतिभा खूब चमकी है। किंतु अधिकांश स्थल विशेषकर श्रारंभ के, शिथिल और शुष्क हैं। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि यह ग्रंथ आधुनिक कवियों में उन्हें उच्च श्रासन प्रदान करता है। यशोधरा में बुद्ध-वैराग्य के बाद यशोधरा का वर्णन है। यह करुण रस का सुदर काव्य है, किंतु स्थल स्थल पर व्यर्थ के वाग्विस्तार ने काव्य के प्रभाव को क्षीण कर दिया है। द्वापर नए ढंग का काव्य है जिसमें कृष्ण-कथा से संबंध रखनेवाले पात्र अपने अपने मुँह से एक प्रकार से अपनी अपनी जीवन-कथा कहते हैं। ढंग सर्वथा मौलिक है और गुप्त जी की उपज को सिद्ध करता है। गुप्तजी का आधुनिक समय का प्रति. निधि कवि होना इसी बात से सिद्ध होता है कि उनकी छायावाद के ढंग की रचनाएँ भी उस श्रेणी के कवियों की प्रशंसा पा चुकी हैं। गुप्तजी की कविता में कहीं कृत्रिमता नहीं देख पड़ती परंतु इसमें भी संदेह