पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/४२

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हिंदी का ऐतिहासिक विकास नहीं है। हाँ, यह कहा जा सकता है कि उसके कवि ने जगह जगह अपनी राजस्थानी चोली में इस सामान्य साहित्यिक भापा, (हिंदी) को मिलाने का प्रयत्न अवश्य किया है। ... डिंगल के ग्रंथों में प्राचीनता की झलक उतनी नहीं है जितनी पिंगल ग्रंथों में पाई जाती है। राजस्थानी कवियों ने अपनी भापा को प्राचीनता का गौरव देने के लिये जान बूझकर प्राकृत अपभ्रंश के रूपों का अपनी कविता में प्रयोग किया है । इससे वह भाषा वीरकाव्योपयोगी अवश्य हो जाती है, पर साथ ही उसमें दुरूहता भी था जाती है। ' इसके अनंतर हिंदी के विकास का मध्य काल प्रारंभ होता है जो ५२५ वर्षों तक चलता है। भाषा के विचार से इस काल को हम दो मुख्य भागों में विभक्त कर सकते हैं-एक सं० १३७५ से १७०० तक और दूसरा १७०० से १६०० तक। प्रथम भाग में हिंदी की पुरानी घोलियां घदलकर ब्रजभाषा, अवधी और खड़ी बोली का रूप धारण करती हैं। और दूसरे भाग में उनमें प्रौढ़ता आती है तथा अंत में अवधी और ब्रजभाषा का मिश्रण सा,हो जाता है और काव्य-भाषा का एक सामान्य रूप खड़ा हो जाता है। इस काल के प्रथम भाग में राजनीतिक स्थिति डांवाडोल थी। पीछे से उसमें क्रमशः स्थिरता आई जो दूसरे भाग में दृढ़ता को पहुँचकर पुनः डाँचांडोल हो गई। हिंदी के विकास की चौथी अवस्था संवत् १६०० में प्रारंभ होती है। उसी समय से हिंदी गद्य का विकास नियमित रूप से प्रारंभ हुआ है और खड़ी बोली का प्रयोग गय और पद्य दोनों में होने लगा है। मध्य काल के पहले भाग में हिंदी की पुरानी बोलियों ने विकसित होकर व्रज, अवधी और खड़ी बोली का रूप धारण किया और प्रज तथा अवधी ने साहित्यिक याना पहनकर प्रौढ़ता प्राप्त की। पुरानी वोलियों ने किस प्रकार नया रूप धारण किया इसका क्रमवद्ध विवरण देना अत्यंत कठिन है, पर इसमें संदेह नहीं कि वे एक बार ही साहित्य के लिये स्वीकृत न हुई होंगी। इस अधिकार और गौरव को प्राप्त करने में उनको न जाने कितने वर्षों तक साहित्यिकों की तोड़-मरोड़ . सहनी, तथा उन्हें घटाने-बढ़ाने की पूर्ण स्वतंत्रता दे रखनी पड़ी होगी। मध्य युग के धार्मिक प्रचार संबंधी आंदोलन ने प्रचारकों को जनता के. हृदय तक पहुँचने की आवश्यकता का अनुभव कराया। इसके लिये जन साधारण की भाषा का ज्ञान और उपयोग उन्हें अनिवार्य शात हुश्रा। इसी आवश्यकता के वशीभूत होकर निर्गुणपंथी संत कवियों ने जन-साधारण की भाषा को अपनाया और उसमें कविता की; परंतु