पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/४३

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हिंदी भाषा , ! घे उस कविता को माधुर्य श्रादि गुणों से अलंकृत न कर सके और न किसी एक बोली को अपनाकर उसके शुद्ध रूप का उपयोग कर सके। उनके अपढ़ होने, स्थान स्थान के साधु-संतों के सत्संग और भिन्न भिन्न प्रांतों तथा उसके उपखंडों में जिज्ञासा की तृप्ति के लिये पर्यटन एवं प्रवास ने उनकी भाषा में एक विचित्र खिचड़ी पका दी। काशी-निवासी कबीर के प्रभाव से विशेष कर पूरवी भाषा (अवधी ) का ही उसमें प्राबल्य रहा, यद्यपि खड़ी बोली और पंजायी भी अपना प्रभाव डाले विना न रहीं। इन साधु-संतों द्वारा प्रयुक्त मापा को हम सधुक्कड़ी श्रवधी अथवा साहित्य में प्रयुक्त उसका असंस्कृत अपरिमार्जित रूप फह सकते हैं। आगे चलकर इसी अवधी को प्रेमाख्यानक मुसलमान कवियों ने अपनाया और उसको किंचित् परिमार्जित रूप में प्रयुक्त करने का उद्योग किया। इसमें उनको यहुत कुछ सफलता भी प्राप्त हुई। अंत में स्वाभाविक कोमलता और सगुण भक्ति की रामोपासक शाखा के प्रमुख प्रतिनिधि तुलसीदास ने उसे प्रौढ़ता प्रदान करके साहित्यिक श्रासन पर सुशोभित किया। प्रेमाख्यानक कवियों ने नित्य के व्यवहार में आनेवाली भाषा का प्रयोग किया और तुलसीदास ने संस्कृत के योग से उसको परिमार्जित और प्रांजल बनाकर साहित्यिक भापा का गौरव प्रदान किया। ब्रजभापा एक प्रकार से चिर-प्रतिष्ठित प्राचीन काव्य-भापा का विकसित रूप है। पृथ्वीराज रासो में ही इसके ढांचे का बहुत कुछ श्राभास मिल जाता है-"तिहि रिपुजय पुरहरन को भए प्रथिराज नरिंद।" सूरदास के रचना-काल का प्रारंभ संवत् १५७५ के लगभग माना जाता है। उस समय तक काव्य-मापा ने ब्रजभाषा का पूरा पूरा रूप पकड़ लिया था, फिर भी उसमें क्या क्रिया, फ्या सर्वनाम और फ्या अन्य शब्द सबमें प्राकृत तथा अपनंश का प्रभाव दिखाई देता है। पुरानी • काव्य-भाषा का प्रभाव व्रजभापा में अब तक लतित होता है। रत्नाकर जी की कविता में भी अभी तक 'मुक्ताहल' और 'नाह' ऐसे न जाने कितने शब्द मिलते हैं। तुलसीदासजी की रचना में जिस प्रकार अवधी ने प्रौढ़ता प्राप्त की उसी प्रकार अष्टछाप के कवियों की पदावली में ब्रज' भाषा भी विकसित हुई। घनानंद, विहारी और पनाकर की कविता में तो उसका पूर्ण परिपोप हुना। यहां पर यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार अवधी में मिश्रण के कारण साधु-संत हुए उसी प्रकार व्रजभाषा में मिश्रण के कारण राजा लोग हुए। यह ऊपर कहा जा चुका है कि