पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/४८

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हिंदी का ऐतिहासिक विकास उत्तर या वर्तमान काल में साहित्य की भाषा में प्रजभाषा और अवधी का प्रचार घटता गया और खड़ी बोली का प्रचार बढ़ता गया। इधर इसका प्रचार इतना बढ़ा है कि अब हिंदी का समस्त गद्य इसी भाषा में लिखा जाता है और पद्य की रचना भी बहुलता से इसी में हो रही है। आधुनिक हिंदी गद्य या खड़ी बोली के प्राचार्य शुद्धता के पक्ष- पाती थे। वे खड़ी बोली के साथ उर्दू या फारसी का मेल देखना नहीं चाहते थे। इंशाउल्ला तक की यही सम्मति थी। उन्होंने 'हिंदी छुट किसी की पुट' अपनी भाषा में न आने दी, यद्यपि फारसी रचना की छूत से वे अपनी भाषा को न बचा सके। इसी प्रकार आगरा निवासी लल्लूलाल की भाषा में व्रज का पुट है और सदल मिश्र की भाषा में प्रवी की छाया घर्तमान है, परंतु सदासुखलाल की भाषा इन दोपों से मुक्त है। उनकी भाषा व्यवस्थित, साधु और बे-मेल होती थी। श्राज- कल की खड़ी बोली से सीधा संबंध इन्हीं की भाषा का है, यद्यपि हिंदी गद्य के क्रमिक विकास में हम इंशाउल्ला खां, लल्लूलाल और सदल मिश्र की उपेक्षा नहीं कर सकते। ' आगे चलकर जव मुसलमान खड़ी बोली का 'मुश्किल जवान' कहकर विरोध करने लगे और अँगरेजों को भी शासन संबंधी आवश्य- कताओं के अनुसार तथा राजनीतिक चालों को सफलता के उद्देश्य से शुद्ध हिंदी के प्रति उपेक्षा भाव उत्पन्न हो गया तव राजा शिवप्रसाद, समय और स्थिति की प्रगति का अनुभव कर, उसे फारसी मिश्रित बनाने में लग गए और इस प्रकार उन्होंने हिंदी की रक्षा कर ली। इसी समय भाषा में राष्ट्रीयता की एक लहर उठ पड़ी जिसके प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे। अभी कुछ ही दिन पहले मुसलमान भारतवर्ष के शासक थे। इस बात को वे अभी भूले नहीं थे। अतएव उनका इस राष्ट्रीयता के साथ मिलना असंभव सा था। इसलिये राष्ट्री- यता का अर्थ हिंदुत्व की वृद्धि था। लोग सभी बातों के लिये प्राचीन हिंदू संस्कृति की ओर झुकते थे। भाषा को समृद्धि के लिये भी बुंगला के अनुकरण पर संस्कृत शब्द लिए जाने लगे, क्योंकि प्राचीन परंपरा का गौरव और संबंध सहज में उच्छिन्न नहीं किया जा सकता। उसको बनाए रखने में भविष्य की उन्नति का मार्ग प्रशस्त, परिमार्जित और सुदृढ़ हो सकता है। यही कारण है कि राजा शिवप्रसाद को अपने उद्योग में सफलता न प्राप्त हुई और भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा प्रदर्शित