पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/५५

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हिंदी भाषा तत्सम शब्दों से बनकर प्रयोग में आने लगे हैं; जैसे, 'दर्शाना'। ज्यों ज्यों खड़ी चोली में कविता का प्रचार बढ़ेगा, त्यो त्यों उसमें ऐसे क्रिया- पदों की संख्या भी बढ़ेगी। माषा फी व्यंजक शक्ति बढ़ाने और उसके संक्षेप में भाव प्रकट करने में समर्थ होने के लिये ऐसे नामधातुओं की संख्या में वृद्धि होना श्रावश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। इस प्रकार हम हिंदी के शब्द-भांडार का विश्लेषण करके इस सिद्धांत पर पहुँचते हैं कि इसमें (१) संस्कृत या प्राकृत भाषानों से प्रागत शब्दों, (२) देशज शब्दों तथा (३) अनुकरण शब्दों के अति. रिक्त (४) तत्समाभास, (५) अर्द्धतद्भव या तद्भवाभास, (६) द्विज और (७) प्रतिध्वनि शब्द भी पाए जाते हैं। हमारी मापा पर भारतवर्ष की अन्यान्य भाषाओं तथा चिदेशियों की भाषाओं का भी कम प्रभाव नहीं पड़ा है। द्रविड़ भापान के पत्त विदेशी प्रभाव से शब्द संस्कृत और प्राकृतों में मिल गए हैं और उनमें से होते हुए हमारी भाषा में आ गए हैं। टवर्गी अक्षरों के विपय में बहुतों का यह कहना है कि इनका श्रागमन संस्कृत और प्राकृत में तथा उनसे हमारी भाषा मे द्रविड़ भाषाओं के प्रभाव के कारण हुश्रा है। डाक्टर ग्रियर्सन की सम्पति है कि द्रविड़ भाषाओं के केवल शब्द ही हमारी भाषा में नहीं मिल गए हैं, वरन् उनके व्याकरण का भी उस पर प्रभाव पड़ा है। वे कहते हैं कि हिंदी की कुछ विभक्तियाँ भी द्रविड़ भापात्रों की विभक्तियों के अनुरूप धनाई गई हैं। जैसे-कर्म और संप्रदान कारकों की विभक्तियाँ तो संस्कृत के "कृते" से निकलकर "कहुँ" होती हुई 'की' हो गई हैं। पर द्रविड़ भापानों में इन्हीं दोनों कारकों की विभक्ति 'कु' है। विभक्तियों के विषय में हम आगे चलकर विशेष रूप से विचार करेंगे। यहाँ इतना ही जान लेना श्रावश्यक है कि हिंदी विभक्ति'को' की द्राविड़ विभक्ति 'कु' से यहुत कुछ समानता है। पर इससे यह सिद्धांत नहीं निकल सकता कि घह द्रविड़ भाषाओं से हिंदी में भाई । डाक्टर ग्रियर्सन ने भी यह सिद्धांत नहीं माना है। उनके कहने का तात्पर्य इतना ही है कि द्रविड़ विभक्तियों की अनुरूपता हमारी विभक्तियों के जिस रूप में पाई गई, वही रूप अधिक ग्राह्य समझा गया। मिस्टर केलाग का कहना है कि टवर्ग के अक्षरों से प्रारंभ होनेवाले अधिकांश शब्द द्रविड़ भाषा के हैं और प्राकृतों से हिंदी में पाए हैं। उन्होंने हिसाब लगाकर बताया है कि प्रेमसागर के टवर्ग के अक्षरों से प्रारंभ होनेवाले ८६ शब्दों में से २१ संस्कृत के तरसम और ६८ प्राकृत के तद्भव है; और 'क' से प्रारंभ होनेवाले