पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/६५

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हिंदी भाषा जुलती है। संज्ञा शब्दों के एकवचन रूप प्रायः समान ही है, पर पहु- पचनों में अंतर पड़ जाता है, जैसे, पफवचन घर, घोड़ा, घदी; पर यदुवचन में इनके रूप ममशः धन्या, घोड़ा, घश्या हो जाते है। जयपुरी और मारवाड़ी की विभक्तियाँ इस प्रकार है- कारक जयपुरी मारवाड़ी संबंध यो, का, की रो, रा, री सप्रदान अपादान __ प्रजभाषा में अपादान की विभक्ति सो, ते और धुंदेलसंडी की सों, से होती है जो जयपुरी और मारवाड़ी दोनों से मिलती है। ग्रज. भाषा और युदेलपंडी में तो संबंध कारक की विभक्ति परस्पर मिलती है, पर मारवाड़ी की भिन्न है। .. व्यक्तिवाचक सर्वनामों की भी यही अवस्था है। ब्रजभाषा और बुंदेलसंटी में एकवचन का मूल रूप मो, मुज, मे या तो, तुज, ते है, पर राजस्थानी में मुँ, त, तू है, जो गुजराती से मिलता है। पहु- वचन में हम, तुम की जगह हाँ, थाँ हो गया है। राजस्थानी में एक- वचन के पहले व्यंजन को हकारमय करने की भी प्रवृत्ति है। जैसे म्हा। सारांश यह कि व्यक्तिवाचक सर्वनामों में फहीं गुजराती से और कहीं प्रजभाषा या बुंदेलखंडी से साम्य है और कहीं उसके सर्वथा स्वतंत्र रूप हैं। निश्चयवाचक सर्वनामों की भी यही अवस्था है। राजस्थानी भापाओं की क्रियाओं में एक बड़ी विशेषता है। उनमें कर्मणि-प्रयोग बराबर मिलता है जो पश्चिमी हिंदी में बहुत ही कम होता है। इन मापात्रों की क्रियात्री में धातु रूपये ही हैं जो दूसरी अाधुनिक मारतीय भापानी में मिलते हैं। केवल उनके उच्चारण में कहीं कहीं भेद है। राजस्थानी क्रियाओं में विशेषता इतनी ही है कि वर्तमान काल में उत्तम पुरुप बहुवचन का प्रत्यय श्रों होता है, पर प्रथम पुरुप यहुयवन का प्रत्यय विशेषण के समान पा होता है। जैसे-