हिंदी भाषा शासन करते हैं-चक्ता, लेखक श्रीर कवि। चैयाकरण वेचारा तो उन्हों के राज्य में रहकर केवल लेखा लिया करता है। इसलिये पाणिनि ने जो अपने व्याकरण में सेती पाती, लेन देन, पणिज व्यापार, चुंगी झरी, कर पोत, लुहारी सुनारी, बढ़ई गिरी, ढोल ढमफ्फा, चिड़िया चुनमुन, फूल पत्ती, नाप जोख श्रादि श्रादि के अतिरिक्त पूर्वी उत्तरी प्रयोग, मुहा- विरे बोलचाल श्रादि लिखे हैं, कात्यायन तथा पतंजलि ने जो अनेक व्यव- हार-सातिक सूचम विवेचन किए है, वे उनके मन के मनसूवे नहीं, कितु गंभीर गवेपणा, सारवान् सर्वेक्षण, व्यापक विचार और उस व्याकरण- पटुता के परिणाम है जो अभी अभी थोड़े दिन हुए अँगरेजी जैसी समृद्ध राजमापा में फलीभूत हुए हैं। पहले संस्कृत शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता था। 'संस्कृता या"* ठीक उसी भाषा को कहते थे जिसे उर्दूघाले "शुस्ता जुवान" या अँगरेजीदा Refined speech कहते हैं। प्रत्येक भापा यदि वह व्यवहारक्षम, शिष्टप्रयुक्त और व्यापक है तो समय पाकर संस्कृत धन जाती है। हमारी श्राज की हिंदी यदि संस्कृत कही जाय तो कोई अनु- चित नहीं। पीछे जैसे "उर्दू हिंदी" से केवल "उर्द" रह गई, वैसे ही "संस्शत-वाक" से केवल 'संस्कृत' शब्द ही उस विशिष्ट भापा के लिये प्रयुक्त होने लगा। सुंदर, व्यापक और सर्वगम्य होने के कारण साहित्य- रचना इसी में होने लगी एवं उसका तात्कालिक रूप आदर्श मानकर व्यवस्था अक्षुण्ण रखने के लिये पाणिनि श्रादि वैयाकरणों ने नियम बनाए। इस प्रकार साहित्यकारों की कृति और वैयाकरणों की व्याकृति से संस्कृत परिष्कृत होकर बहुत दिनों तक अखंड राज्य करती रही। .. सब दिन बराबर नहीं जाते। संस्कृत सर्व-गुण-संपन्न थी सही, पर धीरे धीरे उसका चलन कम होने लगा। यह राष्ट्रीय से सांप्रदायिक हो चली। इसके कई कारण थे। एक तो वह सर्व साधारण की भापा न होने के कारण प्रयोक्ता के मुख अथवा लेखनी से प्रत्येक भाव की अभि- व्यक्ति के लिये प्रयुद्धिपूर्व न निकलकर उसकी अभिज्ञता की अपेक्षा रखती थी। दूसरे, इसके प्रयोगकर्ता आर्यजन किसी एक प्रदेश में ही अवरुद्ध नहोकर उत्तरोत्तर अपना विस्तार करते, अन्य भाषा-भापियों से संपर्क घढ़ाते तथा नित्य नए भावों और उनके अभिव्यंजक साधनों का श्रादान यदि वाच प्रदास्यामि द्विजातिरिव सस्कृताम् । , रावणं मन्यमाना मा सीता भीता भविष्यति ।। वा० रा०, सु. ३० ॥ १८॥
पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/८
दिखावट