... प्राचीन भाषाएँ प्रदान करते जाते थे। तीसरा और सबसे प्रधान कारण धामिक विप्लव था। महावीर स्वामी और बुद्धदेव ने प्रांतीय बोलियों में ही अपना धर्मो- पदेश श्रारंभ किया। साधारण जनता पर इसका अत्यधिक प्रभाव पड़ा। उनके बहुत से अनुयायी हो गए। उनका धर्म भी भिन्न हो गया, भाषा भी भिन्न हुई। इस प्रकार इन दो धर्म-संस्थापकों का श्राश्रय पाकर प्रांतीय योलियाँ भी चमक उठी और संस्कृत से बरावरी का दावा करने लगी। उधर चैदिक धर्मानुयायी और अधिक दृढ़ता से अपनी भाषा की रक्षा करने लगे। इसका फल यह हुआ कि संस्कृत एक संप्रदाय की .भापा बन गई। ___हम पहले कह चुके हैं कि वेदों की भाषा कुछ कुछ व्यवस्थित होने पर भी उतनी स्थिर और अपरिवर्तनशील न,थी जितनी उसकी कन्या संस्कृत, पूर्वोक्त कारणों के अनुसार, बन गई। अपनी योग्यता से उसने श्रमरवाणी का पद तो पाया, पर श्रागे कोई न होने के कारण उसकी वह अमरता एक प्रकार का भार हो गई। उधर उसकी दूसरी बहिन जो रानी न बनकर प्रजापक्ष के हितचिंतन में निरत थी, जो केवल पार्यों के अवरोध में न रहकर अन्य अनार्य रमणियों से भी स्वतंत्रतापूर्वक मिलती जुलती थी, संतानवती हुई। उसका वंश वरावर चलता आ रहा है। संतानवती होने के कारण उसने अपनी माता से समय समय पर जो संपत्ति प्राप्त की, वह निःसंतान संस्कृत को न मिल सकी। यदि रूपक का परदा हटाकर सीधे शब्दों में कहें तो बात यह हुई कि वेदकालीन कथित भापा से ही संस्कृत भी उत्पन्न हुई और अनार्यों के संपर्क का सहकार पाकर अन्य प्रांतीय बोलियाँ भी विकसित हुई। संस्कृत ने केवल चुने हुए प्रचुरमयुक्त व्यवस्थित व्यापक शब्दों से ही अपना भंडार भरा, पर औरों ने वैदिक भाषा की प्रकृति-स्वच्छंदता को भरपेट अपनाया। यही उनके प्राकृत (स्वाभाविक या अकृत्रिम) कहलाने का कारण है, यही उनमें वैदिक भाषा की उन विशेषताओं के उपलब्ध होने का रहस्य है जो संस्कृत में कहीं देख नहीं पड़ती।। वैदिक भाषा की विशेषताएँ जो संस्कृत में न मिलकर प्राकृतों में ही उपलब्ध होती हैं उनके विषय में थोड़े से उदाहरणों का निर्देश करना श्रप्रासंगिक न होगा। प्राकृत में व्यंजनांत शब्द का प्रायः प्रयोग नहीं होता। संस्कृत के व्यंजनांत शब्द का अंतिम व्यंजन प्राकृत में लुप्त हो जाता है। जैसे-संस्कृत के 'तावत्' 'स्यात् 'कर्मन्' प्राकृत में क्रमशः 'ता' 'सिया' 'कम्म' हो जायेंगे। प्राकृत में यह निरपवाद, है। अब वैदिक भापा लीजिए। उसमें दोनों प्रकार के प्रयोग मिलते हैं। 'कर्मणः
पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/९
दिखावट