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तास, तासु आदि रूप बनते हैं। ऐसे ही संस्कृत कः से प्राकृत को और हिन्दी कौन—सँस्कृत यः से प्राकृत में जो बनता है। जो हिन्दी में उसी रूप में गृहीत हो गया है। सँस्कृत किम् से हिन्दी का क्या और कोपि से हिन्दी का कोई निकला है। अपभ्रंश में किम् का रूप काँइ और कोपि का रूप कोबि पाया जाता है यथा "अम्हे निन्दहुँ कोबिजण अम्हे बप्णउ कोबि", "काइँ न दूरे देक्खइ"
हिन्दी भाषा की अधिकांश क्रियायें संस्कृत से ही निकली हैं। संस्कृत में क्रियाओं के रूप ५०० से अधिक पाये जाते है, उन सब के रूप हिन्दी में नहीं मिलते, फिर भी जो क्रियायें संस्कृत से हिन्दी में आई हैं, उनकी संख्या कम नहीं है। हिन्दी में कुछ क्रियायें, अन्य भाषाओं से भी बना ली गई हैं, परन्तु उनको संख्या बहुत थोड़ी है। उनकी चर्चा आगे के प्रकरण में की जायगी। संस्कृत क्रियाओं का विकास हिन्दी में किस रूप में हुआ है, और हिन्दी में किस विशेषता से वे ग्रहण की गई हैं, केवल इसी विषय का वर्णन थोड़े में यहां करूंगा प्रत्येक विषयों का दिग्दर्शन मात्र ही इस ग्रन्थ में हो सकता है, क्योंकि अधिक विस्तार का स्थान नहीं। विशेष उल्लेख योग्य खड़ीबोली की क्रियायें हैं। जिनका मार्ग अपनी पूर्ववर्ती भाषाओं से सर्वथा भिन्न है।
खड़ी बोलचाल की हिन्दी में 'है' का एकाधिपत्य है 'था' का व्यवहार भी उसमें अधिकता से देखा जाता है। बिना इनके अनेक वाक्य अधूरे रह जाते हैं, और यथार्थ रीति से अपना अर्थ प्रकट नहीं कर पाते। 'है' की उत्पत्ति के विषय में मतभिन्नना है। कोई कोई इसकी उत्पत्ति अस् धातु से बतलाते हैं और कोई भू धातु से। 'ओरिजन आफ़ दि हिन्दी लांगवेज' के रचयिता यह कहते हैं—
"संस्कृत में भू-भवामि-भव, भोमि के स्थान पर वररुचि ने भू-हो-हुआ. आदि रूप दिया है, दो सहस्त्र वर्ष से 'हो' का प्रयोग होने पर भी ब्रजभाषा के भूतकाल में भू-धातु का रूप भया-भये-भयो आदि का प्रयोग अबतक