होता है। 'हो' का प्राकृत रूप होमे' और हिन्दी रूप 'हूं' है।"[१]
इस अवतरण से यह स्पष्ट है कि वररुचि ने भू धातु से ही होना, धातु की उत्पत्ति मानी है, इसी होनाका एक रूप 'है' है। अवधी में 'है' के स्थान पर 'अहै' का प्रयोग भी होता है। यथा
"सांची अहै कहनावतिया अरीऊँचीदुकानकी फीकी मिठाई"
इसलिये यह विचार अधिकता से माना जाता है कि अस् से ही है की उत्पत्ति है। अस् से अहै स् के ह हो जाने कारण बना, और व्यवहाराधिक्य से अ के गिर जाने के कारण केवल है का प्रयोग होने लगा। दोनों सिद्धान्तों में कौन माननीय है, यह बात निश्चित रीति से नहीं कही जा सकती, दोनों ही पर तर्क वितर्क चल रहे हैं, समय ही इसकी उचित मीमांसा कर सकेगा। 'था' की उत्पत्ति 'स्था' धातु से मानी जाती है, ओरिजन आफ़ दि हिन्दी लांगवेज के रचयिता भी इसी सिद्धान्त को मानते हैं।[२]
इस है, और था के आधार से बने कुछ हिन्दी क्रियाओं के प्रयोग की विशेषताओं को देखिये। संस्कृत चलति का अपभ्रंश एवं अवधी में चलइ और ब्रजभाषा में चलय अथवा चलै रूप वर्त्तमानकाल में होगा। परन्तु खड़ी बोलचाल की हिन्दी में इसका रूप होगा चलता है। संस्कृत में प्रत्यय न तो शब्द से पृथक् है, न अवधी में, ब्रजभाषा में भी नहीं जो कि पश्चिमी हिन्दी ही है। इनके शब्द संयोगात्मक हैं, उनमें है का भाव मौजूद है। परन्तु खड़ी बोली का काम बिना है के नहीं चला, उसमें है लगा और बिल्कुल अलग रह कर। खड़ी बोली की अधिकांश क्रियायें हैं से युक्त हैं। था के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं। खड़ी बोली के प्रत्ययों और विभक्तियों को प्रकृति से मिलाकर लिखने के लिये दस बरस पहले बड़ा आन्दोलन हो चुका है। कुछ लोग इस विचार के अनुकूल थे और कुछ प्रतिकूल। संयोगवादी प्राचीन प्रणाली की दुहाई देते थे, और