पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/११९

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द्वितीय खण्ड

 

प्रथम प्रकरण।
साहित्य।

हिन्दी भाषा-साहित्य के विकास पर कुछ लिखने के पहले मैं यह निरूपण करना चाहता हूं कि साहित्य किसे कहते हैं। जब तक साहित्य के वास्तविक रूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होगा, तब तक इस बात की उचित मीमांसा न हो सकेगी, कि उसके विषय में अब तक हिन्दी संसार के कवियों और महाकवियों ने समुचित पथ अवलम्बन किया या नहीं। और साहित्य-विषयक अपने कर्त्तव्य को उसी रीति से पालन किया या नहीं, जो किसी साहित्य को समुन्नत और उपयोगी बनाने में सहायक होती है। प्रत्येक समय के साहित्य में उस काल के परिवर्त्तनों और सँस्कारों का चिन्ह मौजूद रहता है। इस लिये जैसे जैसे समय की गति बदलती रहती है, साहित्य भी उसी प्रकार विकसित और परिवर्त्तित होता रहता है। अतएव यह आवश्यक है कि पहले हम समझ लें कि साहित्य क्या है, इस विषय का यथार्थ बोध होने पर विकास की प्रगति भी हमको यथातथ्य अवगत हो सकेगी।

"सहितस्य भावः साहित्यम्" जिसमें सहित का भाव हो उसे साहित्य कहते हैं। इसके विषय में संस्कृत साहित्यकारों ने जो सम्मतियां दी हैं मैं उनमें से कुछ को नीचे लिखता हूं। उनके अवलोकन से भी साहित्य की परिभाषा पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा 'श्राद्ध विवेककार' कहते हैं:—

"परस्पर सापेक्षाणाम् तुल्य रूपाणाम् युगपदेक क्रियान्वयित्वम् साहित्यम्"।