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पद्यों की आदिम रचना इतनी प्राञ्जल और उतनी प्रौढ़ नहीं होतीं जितनी उत्तरकाल की, यह मैं पहले लिख आया हूं। चन्दबरदाई की रचनाओं में ये बातें पाई जाती हैं, जो उन्हें आरम्भिक काल की मानने के लिये बिबश करती हैं। किसी विषय का दोष गुण उस समय ही यथा-तथ्य सामने आता है, जब उस पर अधिकतर विचार दृष्टि पड़ने लगती है, नियम उसी समय निर्दोष बन सकते हैं, जब कार्य क्षेत्र में आने पर उन पर विवेचना का अवसर प्राप्त होता है। आदिम रचनाओं में प्रायः अप्राञ्जलता और अनियमवद्धता इसलिये पाई जाती है कि उनका पथ विचार-क्षेत्र में आकर प्रशस्त नहीं हो गया होता और न आलोचना और प्रत्यलोचनाओं के द्वारा उनकी प्रणाली परिमार्जित हो गई होती। जिस काल में पृथ्वीराज रासो की मुख्य रचना प्रारम्भ होती है उस समय साहित्य की अवस्था ऐसी ही थी और यह दूसरा प्रमाण है जो उसके आदिम अंशको आरंभिककाल की कृति बतलाता है। उदाहरण लीजियेः—
चले दस्सहस्सं असव्वार जानं।
मदं गल्लितं मत्त सै पंच देती।
रँगं पंच रंगं ढलक्कन्त ढालं।
सुरं पंच सावद्द वाजित्र बाजं।
सहस्सं सहन्नाय मृग मोहि राजं।
मँजारी चखी मुष्ष जम्बक्क लारी।
एराकी अरब्बो पटी तेज ताजी।
तुरकी महाबान कम्मान बाजी।