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रजंपुत्त पच्चास जुद्धे अमोरं।
बजै जीत के नद्द नीसान घोरं।
सामना सूर सव्बय अपार।
झटं जाहु तुम कीर दिल्ली सुदेसं।
कंद्रप्प जाति अवगार रूप।
जो चिन्हित शब्द हैं उनमें कवि को निरंकुशता और मनमानी रीति से शब्द गढ़ लेने की प्रवृत्ति स्पष्टतया दृष्टिगत होती है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उत्तर काल की कुछ रचनाओं में भी इस प्रकार का प्रयोग मिलता है। किन्तु मैं उसको चन्दबरदाई की ही रचनाओं का अनुकरण मात्र समझता हूं। इस निरंकुशता के प्रवर्तक पृथ्वीराज रासोकार ही हैं। यह अप्राञ्जलता और अनियमवद्धता जो उनकी रचना में आई है उसका कारण उनका आरम्भिक काल का होना है। निम्नलिखित शब्द विदेशी भाषा के हैं:—
'असव्वार', 'सहन्नाय', 'अरव्बी ','तुरक्की 'कम्मान', इत्यादि।
इनका ग्रहण अनुचित नहीं, परन्तु इनका मनगढ़न्त प्रयोग उचित नहीं। इन शब्दों का शुद्ध रूप 'सवार', 'शहनाई' अरबी', 'तुरकी', 'कमान' हैं, किन्तु उनका जो रूप कवि ने बनाया है वह न तो उस भाषा के व्याकरण पर अवलम्बित हैं न हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत या अपभ्रंश के नियमों के अनुकूल हैं। ऐसी अवस्था में उनका प्रयोग जिस रूप में हुआ है वह अप्रौढ़ता और अनियमवद्धता का ही परिचायक है, जो तत्कालिक हिन्दी भाषा की अपरिपक्कता का सूचक है। शेष शब्द हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत किंवा अपभ्रंश के हैं। उनका भी मन माना प्रयोग किया गया है, जैसे 'गलित' को 'गल्लितं', 'ढलकन' को 'ढलक्कंत', 'शब्द' को 'सावद्द', 'वादित्र' को 'बाजित्र', 'मुख' को 'मुष्प', 'जम्बुक' को 'जम्बक्क', 'राजपूत' को 'रजंपुत्त', 'पचास' को 'पच्चास', 'नाद' को 'नई', 'सब' या 'सब्ब' को 'सब्बय', 'झटिति' या 'झट' को 'झटं', कंदर्प' को 'कंद्रप्प'