पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१४२

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इत्यादि। ये शब्द हिन्दी, प्राकृत, अथवा अपभ्रंश व्याकरण के अनुकूल न तो बने हैं और न इनमें साहित्य-सम्बन्धी कोई नियमबद्वता पाई जाती है। इसलिये मेरा विचार है, कि ये कवि के गढ़े शब्द हैं और इसी कारण से इनकी सृष्टि हुई है कि आरम्भिककाल में इस प्रकार की उच्छृङ्खलता का कोई प्रतिबन्ध नहीं था। अतएव मैं यह कहने के लिये बाध्य हूं कि जिन रचनाओं में इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है वे अवश्य रासो की आदिम अप्रक्षिप्त रचनाये हैं।

पृथ्वीराज रासो के कुछ छन्द भी इस बात के प्रमाण हैं कि उसकी मुख्य रचनाएँ बारहवीं शताब्दी की हैं। आज तक हिन्दी साहित्य में गाथा छन्द का व्यवहार नहीं होता, किन्तु चन्दवरदाई इस छन्द से काम लेता है। वैदिककाल से प्रारम्भ करके बौद्धकाल तक गाथा में रचनाएँ हुई हैं, अपभ्रंश काल में भी गाथा में रचना होती देखी जाती है।[१] ऐसी अवस्था में जब देखते हैं कि चन्दवरदाई भी गाथा छन्द का व्यवहार करता है तो इससे क्या पाया जाता है? यही न कि पृथ्वीराज रासोकी रचना आरम्भिककाल की ही है, क्योकि अपभ्रंश के बाद ही हिन्दी भाषा का आरम्भिक-काल प्रारम्भ होता है। रासो का एक गाथा छन्द देखिये, और उसकी भाषा पर भी विचार कीजिये

पुच्छति बयन सुवाले उच्चरिय करि सच्च सच्चाए।
कवन नाम तुम देस कवन पंद करै परवेस।

अबतक मैंने पृथ्वीराज रासो के प्राचीन अंश के विषय में जो कुछ

लिखा है उससे मैं नहीं कह सकता कि अपने विषय के प्रतिपादन में मुझको कितनी सफलता मिली। यह बड़ा वाद-ग्रस्त विषय है। यदि डाक्टर ग्रियसन की सम्मति पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता के अनुकूल है तो डाक्टर बूलर की सम्मति उसके प्रतिकूल। वे इस ग्रन्थ की यहाँ तक प्रतिकूलता करते हैं कि उसका प्रकाशन तक बन्द करा देना चाहते हैं। यदि पंडित मोहनलाल बिष्णुलाल पंड्या अनेक तर्क-वितर्कौं से पृथ्वीराज रासो की


  1. देखिए पालि प्रकाश, पृष्ठ ६२, ६३, ६४।