पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१४३

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प्राचीनता का पक्ष-ग्रहण करते हैं तो जोधपुर के मुरारिदान और उदयपुर के श्यामल दास भी उसका विरोध करने के लिये कटिबद्ध दिखलाई पड़ते हैं। थोड़ा समय हुआ कि रायबहादुर पं॰ गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी अपनी प्रबल युक्तियों से इस ग्रन्थ को सर्वथा जाली कहा है। परन्तु, जब हम देखते हैं कि महामहोपाध्याय पं॰ हरप्रसाद शास्त्री सन् १९०९ से सन् १९१३ तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज करके पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सनद देते हैं तो इस विवर्द्धित बाद की विचित्रता ही सामने आती है। इन विद्वान् पुरुषों ने अपने अपने पक्ष के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण दिये हैं। इसलिये इस विषय में अब अधिक लिखना वाहुल्य मात्र होगा। मैंने भी अपने पक्ष की पुष्टि के लिये उद्योग किया है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि मैंने जो कुछ लिखा है वह निर्विवाद है। हां, एक बात ऐसी है जो मेरे विचार के अधिकतर अनुकूल है। वह यह कि वहत कुछ तर्क-वितर्क और विवाद होने पर भी किसी ने चन्दवरदाई को सोलहवें शतक का कवि नहीं माना है। विवाद करनेवालों ने भी साहित्य के वर्णन के समय उसको बारहवें शतक में ही स्थान दिया है। यदि पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सत्यता में सन्देह है तो उसको बारहवें शतक में क्यों स्थान अबतक मिलता आता है। मेरा विचार है कि इसके पक्ष में ऐसी सत्यता अवश्य है जो इसको बारहवें शतक का काव्य मानने के लिये बाध्य करती है। इसके अतिरिक्ति जबतक संदिग्धता है तबतक उस पद से किसी को कैसे गिराया जा सकता है जो कि चिरकाल से उसे प्रात्र है।

चन्दबरदाई का समसामयिक जगनायक अथवा जगनिक नामक एक ऐसा प्रसिद्ध कवि है जिसकी बीरगाथा मय रचनाओं का इतना अधिक प्रचार सर्व साधारण में है जितना उस समय की और किसी-कवि-कृति का अब तक नहीं हुआ। इसकी रचनायें आज दिन भी उत्तर भारत के अधिकांश विभागों के हिन्दओं की सूखी रंगों में रक्त-धारा का प्रवाह करती रहती हैं। पश्चिमोत्तर प्रान्त के पूर्व और दक्षिण के अंशों में इसके गीतों का अब भी बहुत अधिक प्रचार है। वर्षाकाल में जिस वीरोन्माद के साथ