पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१४५

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ज्ञात हुई। उसकी रचना के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं।

कूदे लाखन तब हौदा से, औ धरती मैं पहुंचे आइ।
गगरी भर के फूल मँगाओ सो भुरुही को दओ पियाइ।
भांग मिठाई तुरतै दइ दइ, दुहरे घोट अफीमन क्यार।
राती भाती हथिनी करि कै दुहरे आँदृ दये डराय।
चहुँ ओर धेरे पृथीराज हैं, भुरुही रखि हौ धर्म हमार।
खैंचि सरोही लाखन लीन्ही समुहें गोलगये समियाय।
साँकरि फेरै भुरुही दल में, सब दल काट करो खरियान।
जैसे भेड़हा भेड़न पैठै, जैसेसिंहबिड़ारै गाय।
वह गत कीनो है लाखन ने, नद्दी वितवै के मैदान।
देवि दाहिनी भइ लाखन को, मुरचा हटोपिथौरा क्यार।

उस समय युद्धोन्माद का क्या रूप था और किस प्रकार मुसल्मानों के साथ ही नहीं, हिन्दू राजाओं में भी परस्पर संघर्ष चल रहा था, इस गीति-काव्य में इसका अच्छा चित्रण है। इस लिए उपयोगिता की ही दृष्टि से नहीं, जातीय दुर्बलताओं का ज्ञान कराने के लिये भी यह ग्रन्थ रक्षणीय और संग्रहणीय है। इन पद्यों को वर्तमान भाषा यह स्पष्टतया बतलाती है कि वह बारहवीं ई॰ शताब्दी की नहीं है। हमने तेरहवीं ई॰ शताब्दी तक आरम्भिक काल माना है। इस लिये हम इस शतक के कुछ कवियों की रचनायें ले कर भी यह देखना चाहते हैं कि उन पर भाषा सम्बन्धी विकास का क्या प्रभाव पड़ा। इस शतक के प्रधान कवि अनन्य दास, धर्मसूरि, विजयसूरि एवं विनय चन्द्र सूरि जैन हैं। इनमें से अनन्य दास की रचना का कोई उदाहरण नहीं मिला। धर्म्मसूरि जैन ने जम्बू स्वामी रासो नामक एक ग्रन्थ लिखा है उसके कुछ पद्य ये हैं (रचना काल २०९ ईस्वी)

करि सानिधि सरसत्ति देवि जीयरै कहाणउँ।
जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।