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जम्बु दीबि सिरि भरत खित्ति तिहि नयर पहाणउँ।
राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।
राज करइ सेणिय नरिन्द नखरहं नुसारो।
तासु वट तणय बुद्धिवन्त मति अभय कुमारो।

विजय सेन सूरि ने 'रेवंतगिरि रासो' की रचना की है। (रचनाकाल १२३१ ई॰)। कुछ उनके पद्य भी देखिये:—

परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।
भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।
गामा गर पुर बरग गहण सरि बरि सर सुपयेसु।
देवि भूमि दिमि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।
जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउडु महन्तु।
निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवंन्तु।
तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।
आवइ भाव रसाल मण उड्डुलि रंग तरंग।

विनय चन्द्रसूरि ने 'नेमनाथ चौपई' और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचना काल १२९९ ई॰) कुछ उनके पद्य देखिये:—

"बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू
धरइ तेजु गहगण सविताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ।
सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमन वंछितपूरि"।

ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिन्हित कर दिये गये हैं वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रगट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिकतर देखा जाता है।[१] उल्लिखित पद्योंमें भी


  1. देखिये पाली प्रकाश पृ॰ ५५