पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१४९

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धर्म-प्रचार की भी उत्कट इच्छा थी। जहां वे राज्य रक्षण अपना कर्तव्य समझते वहीं अपने धर्म्म के विस्तार का आयोजन भी बड़े आग्रह के साथ करते। उस समय का इतिहास पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि जहां विजयी मुसल्मानों की तलवार एक प्रान्त के बाद भारत के दूसरे प्रान्तों पर अधिकार कर रही थी वहीं उनके धर्म-प्रचारक अथवा मुल्ला लोग अपने धर्म की महत्ता बतला कर हिन्दू जनता को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह स्वाभाविकता है कि विजित जाति विजयी जाति के आचार-विचार और रहन-सहन की ओर खिँच जाती है। क्योंकि अनेक कार्य सूत्र से उनका प्रभाव उनके ऊपर पड़ता रहता है। इस समय बौद्ध धर्म प्रायः भारतवर्ष से लोप हो गया था। बहुतों ने या तो मुसल्मान धर्म स्वीकार कर लिया था या फिर अपने प्राचीन वैदिक धर्म की शरण ले ली थी। कुछ भारतवर्ष को छोड़ कर उन देशों को चले गये थे जहां पर बौद्ध धर्म उस समय भी सुरक्षित और ऊर्ज्जित अवस्था में था। इस समय भारत में दो ही धर्म मुख्यतया विद्यमान थे, उनमें एक विजित हिन्दू जाति का धर्म था और दूसरा विजयी मुमल्मान जाति का। राज धर्म होने के कारण मुसल्मान धर्म को उन्नति के अनेक साधन प्राप्त थे, अतएव वह प्रति दिन उन्नत हो रहा था और राजाश्रय के अभाव एवं समुन्नति-पथ में प्रतिबन्ध उपस्थित होने के कारण हिन्दू धर्म दिन दिन क्षीण हो रहा था। इसके अतिरिक्त विविध-राज कृपावलंबित प्रलोभन अपना कार्य अलग कर रहे थे। इस समय सूफ़ी सम्प्रदाय के अनेक मुसलमान फ़क़ीरों ने अपना वह राग अलापना प्रारम्भ किया था, जिस पर कुछ हिन्दू बहुत विमुग्ध हुए और अपने वंश गत धर्म को तिलांजलि देकर उस मंत्र का पाठ किया, जिससे उनको अपने अस्तित्व-लोप का सर्वथा ज्ञान नहीं रहा। ऐसी अवस्था में जहां हिन्दुओं की क्षीण-शक्ति प्रान्तिक राजा महाराजाओं के रूप में अपने दिन दिन ध्वंस होते छोटे मोटे राजाओं की रक्षा कर रही थी, वहां पुण्यमयी भारत-वसुन्धरा में ऐसे धर्मप्राण आचार्य भी आविर्भूत हुए, जिन्होंने पतन प्राय वैदिकधर्म की बहुत कुछ रक्षा की। डाकर ईश्वरी प्रसादने बंगाल