( १८३ ) नहीं है, वह अधिकतर स्वाथ ही का दास है। वह सुख का कामुक और कष्टों से निस्तार पाने का अधिक इच्छुक होता है। वह अपनी कामना की पुर्ति के लिये ऐसी साधनायें करना चाहता है जो सीधी और सरल हों और जिनमें पद पद पर जटिलतायें सामने न खड़ी हो जायें। परमात्मा सर्व लोक का स्वामी हो. प्राणी मात्र का लालन पालन करता हो, परन्तु उसका इतना ही होना पर्याप्त नहीं। लोक चाहता है कि वह दोनबन्धु, दुःख भंजन. आनन्दस्वरूप और विपत्ति में सहायक भी हो। मानवता की इस प्रवृत्ति को संसार की महान आत्माओं ने प्रत्येक समय समझा है और देशकालानुसार उसके संतोपउत्पादन की चेष्टा भी की है। यदि भारतवर्ष के धार्मिक परिवत्तं नो पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो उनमें इस प्रकार के अनेकशः उदाहरण प्राप्त होंगे। जब स्वामी शंकराचार्य के सर्बोच्च ज्ञान का अधिकारी मामयिक महात्माओं ने देशकालानुसार सर्वसाधारण जनता को नहीं पाया तो उन्होंने ऐमा माग ग्रहण करने की चेष्टा की जिससे उन प्राणियों का भी यथार्थहित हो सके जो तत्ववोध के उच्च सोपान पर चढ़ने की योग्यता नहीं रखते । इसी लिये निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ब्रह्म की कल्पना होती आई है। और इसी हेतु से एक अनिर्वचनीय शक्ति के स्थान पर ऐसी शक्ति की उद्भावना महजन करते आये हैं जो वोध गम्य हो और मानव-जीवन का स्वाभाविक सहचर बन सके। ज्ञानमें गहनता है, साथ ही जटिलता भी। भक्ति में सरलता और सहृदयता है। इसी लिये ज्ञान से भक्ति अधिकतर बोधमुलभ है अपने अपने स्थान पर दोनों ही का महत्व है। इसी लिये हिन्दू धर्म में अधिकारी भेद की व्यवस्था है। ज्ञानाश्रयी सिद्धान्त जब व्यवहारिक बनते हैं तो उनको भक्ति को साथ लेना पड़ता है. क्योंकि संसार अधिकतर क्रियामय जीवन का प्रेमिक है। जिन महात्माओं ने इन रहस्यों को समझ कर यथाकाल दोनों की व्यवस्था उचित रूप में की उन्हीं महात्माओं में स्वामी गमानुज का स्थान है। उन्होंने म्वामी शंकराचार्य के ज्ञान-मार्ग को भक्तिमय बना दिया और उनके अद्वैतवाद को विशिष्टाद्वैत का रूप दिया। उन्हों ने निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करते हुये भी उसके सगुण रूप को ग्रहण किया
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