( १८४ ) और बतलाया कि यदि यह सत्य है कि सर्व खल्विदं ब्रह्मनेहनानास्ति किंचन' तो विश्व को हम ब्रह्म का स्वरूप क्यों न मानें और क्यों न भक्ति से आई होकर उसकी उचित परिचर्या में लगे ? उन्होंने इस विश्वात्मक सत्ता को विष्णु-स्वरूप बतलाया जिसकी सहकारिणी शक्ति लक्ष्मी है, विष्णु त्रिगुणात्मक हैं और उनमें सृजन, पालन और संहार तीनों शक्तियां विद्यमान हैं। वे कोटि काम कमनीय और अव्यक्त होने पर भी नील नभोमण्डल-समान श्याम हैं। वे चतुर्भुज अर्थात् चार हाथ से सृष्टिकार्य-परायण हैं और अनन्त ज्ञानमय होने के कारण चतुर्वेदजनक हैं । वे सत्यावलम्वी के रक्षक और पापपरायण प्राणियों के शासक हैं। उनकी दीन-वत्सलता जहाँ अलौकिक है वहीं विपत्ति निवारण उनका स्वाभाविक धर्म । वेशरणागतपालक और पतित जन-पावन हैं । उनका स्थान वैकुण्ठ है जो सर्वदेव अकुण्ठ रहता है और जिसमें वे उन लोगों को स्थान देते हैं जो प्रेम के पावन पथ पर चलने में कुण्ठित नहीं होते । उनकी सहधर्मिणी लोक-विमोहिनी शक्ति रमा है जो उन्हों के समान सांसारिक प्रत्येक कार्य में रमणशीला है। परमात्मा के ऐसे सगुण रूप को सांसारिक प्राणियों के सामने लाकर स्वामी रामानुज ने समयानुसार भारतीय जन का जो हित-साधन किया उसका प्रमाण उनके धर्म की व्यापकता है, जो आजकल भारतवसुंधरा में विस्तृत रूपमें व्यात है। उनका आविर्भावकाल ग्यारहव ईस्वी शताब्दी है। स्वामी रामानन्द उनकी गद्दी के पांचवें अधिकारी थे। स्वामी रामानन्द ने वैष्णव धर्म को कुछ विशेष नियमों से नियमित बनाया। इसका कारण तात्कालिक समान था । स्वामी गमानंद का आविर्भाव-काल चौदहवीं शताब्दी है । इस समय मुसल्मान धर्म वर्द्धनोन्मुख था। मुख्यतः नीच जातियों में उसका प्रचार बड़े वेग से हो रहा था। वैदिक धर्म में समदर्शिता की पर्याप्र शिक्षा होने पर भी कुछ रूढ़ियों के कारण इस भाव का विकास नहीं हो पाता था। इसके विरुद्ध मुसल्मान पीर वचन-द्वारा ही नहीं, आचरण द्वारा भी यह दिखला रहे थे कि किस प्रकार मनुष्य मात्र परस्पर भाई हैं। स्वधर्मी होने पर धम-क्षेत्र में वे किसी से कोई भिन्नता नहीं रखते थे। स्वामी रामानन्द ने बैष्णव धर्म की इस न्यूनता को समझा
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