पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

( १८५ ) और शास्त्रोंकी उन आज्ञाओंको व्यवहारिक रूप दिया जो इस प्रकारकी थीं- 'शुनी चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः' आत्मवत् सर्व भूतेषु यः पश्यति स पण्डितः' उनके विशाल हृदय ने वैष्णव धर्म को समयानुसार बहुत उदार बनाया और उन बंधनों को दृढ़ता के साथ तोड़ा जो मानव-मात्र के परस्पर सम्मि- लन में बाधक थे । वे उस समय मुक्त कंठ से यही कथन करते दृष्टिगत होते हैं कि- 'जाति पांति पूछ नहिं कोई। हरि को भजै सोहरि का होई।' उन्होंने विष्णु के अव्यक्त रूप को व्यक्त रूप दिया और भगवान रामचन्द्र में विष्णु भगवान के समस्त गुणों का आरोप कर उन्हें विष्णु भगवान का अवतार बतलाया। पहले जो विष्णु भगवान कल्पना-क्षेत्र में विराजमान थे उनको गम रूप में लाकर उन्होंने जिज्ञासुओं के सम्मुख उपस्थित किया और उनके उदार चरित्रों के आधार से मानव जाति को, विशेष कर हिन्दू जाति को, उस लोक धम की शिक्षा दी जो काल पाकर उसके लिये संजी- वनी शक्ति बन गई । वैष्णव धर्म में जितनी जटिलतायें थीं उनको उन्होंने इस प्रकार व्यवहार-मुलभ बनाया कि उसकी ओर लोग बड़े उल्लास के साथ अर्पित हो गये । उनके हृदय की विशालता देग्विये कि जो जातियां ठुकगई हुई थी उन्हीं में से उन्होंने ऐसे लोगों का चुना जो हिन्दृ-संसार- गगन में चमकते तारे बन कर चमके। उन्हीं के आध्यात्मिक बल का वह महत्व है कि जिसमें कबीर कवीर बन गये। ये थे कोन ? एक जुलाहे, हिन्दू भी नहीं ,, मुसल्मान । गविदास का जन्म चमार के घर में हुआ था। संन नाई और धन्ना जाट थे । परन्तु स्वामी गमानन्द के प्रभाव से हो आज दिन सन्त समाज में इनको उच्चस्थान प्राप्त है। सिक्खों के ग्रन्थ साहव में जिन सोलह प्रधान भक्तों की बानी संग्रहीत है उनमें ये लोग भी हैं। कहा जाता है, उन्होंने अपने बारह शिष्य ऐसी ही जातियों में से चुन लिये जिनको पनितों में गणना थी। इस पन्द्रहवीं शताब्दी में स्वामी रामानन्द ने ही वह भक्ति स्रोत बहाया जिसमें प्रवाहित होकर ऐसे