( २०२ ) वादियों में यह सिद्धान्त बहुत व्यापक रूपमें गृहीत है । उद्देश्य इसका यही है कि बिना नामके परिचय नहीं होता, और बिना परिचय के गुण-ग्रहण की संभावना नहीं । किन्तु नाम जपनेका लक्ष्य भी तादात्म्य और गुण-ग्रहण ही है. अन्यथा उपासना व्यर्थ हो जाती है। इसीलिये भगवद्गीताका यह महावाक्य है, ये यथामाम् प्रपद्यन्ते तान् तथैव भजाम्यहम् '। मुझको जो जिस रूपमें भजता है। मैं उसको उसी रूपमें प्राप्त होता हूं । बालभाव की उपासना का अर्थ है बालकोंके समान निरीह, निर्दोष और सरल अवस्थाका प्राप्त करना । कहा जाता है, बालक सदैव स्वर्गीय बातावरणमें बिचरता रहता है, इस कथन का मर्म यह है कि वह समस्त सांसारिक बन्धनों और झगड़ों से मुक्त होता है और उसके भावों में एक स्वर्गीय मधुरता विद्यमान रहती है। बालभाव की उपासना में माधुर्य-भावना की चरम सीमा दृष्टिगत होती है। परन्तु इस अवस्थाका प्राप्त करना सहज नहीं । बाल्यावस्था के बाद जो अवस्थायें सामने आती हैं उनको बिल्कुल भूल जाना बहुत बड़ी साधना से सम्बन्ध रखता है । भारतवर्ष में सौ डेढ़ सौ वर्ष के भीतर अनेक महात्माओं का आविर्भाव हुआ है। उनमें से एक परमहंस रामकृष्ण को कभी कभी बाल- भाव में मग्न देखा जाता था । परन्तु उनको भी यह अवस्था कुछ काल के लिये ही प्राप्त होती थी। सदेव इस दशा में वे नहीं रह सकते थे। इसी असम्भवता के कारण स्वामी वल्लभाचार्य प्रचारित बालभाव उपासना की पद्धति को व्यापकता नहीं प्राप्त हुई। उनकी प्रेमिका और प्रेमिक भावकी उपासना ही व्यापक रूप से गृहीत हुई और आज भी उसकी मधुरता उसके अधिकारियों को विमुग्ध कर रही है। अद्वैतवाद में साधक को अपनी सत्ता को विलोप कर देना पड़ता है, क्यों कि द्वैत का भाव उत्पन्न होते ही अद्वैत भाव सुरक्षित नहीं रह सकता। इसीलिये इस मार्ग पर चलना अत्यन्त दुर्लभ है। कोई कोई सच्चा उच्च कोटि का ज्ञान मार्गी ही उस पद्धति का अधिकारी हो सकता है। भक्ति मार्ग में अपनी सत्ता को सर्वथा लोप करना नहीं पड़ता। परन्तु, मर्यादा पद पद पर उसकी सहचरी रहती है, क्यों कि भक्ति महत्ता के अभाव में उत्पन्न नहीं होती और महान् पुरुष के साथ मर्यादा का उल्लंघन नहीं हो सकता। इसलिये मानवी सत्ता
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