पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२१८

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( २०४ ) सहृदय-हृदय-संवेद्य है । उनकी रागात्मिका प्रकृति जितनी ही लोक रंजिनी है उतनी ही चमत्कारमयी। वे इतनी प्रेम परायणा हैं कि प्रियतम का क्षणिक घियोग भी सह्य नहीं, किन्तु इतनी आत्मावलंबिनी हैं कि वियोग अवस्था उपस्थित होने पर वे विश्वमात्र में अपने आराध्यदेव की विभूतियों को अवलोकन करती हैं और इसप्रकार अपने उन्मत्त प्राय हृदय में वह रस धारा बहातो हैं जिसको सुधाधारा से भी सरस कह सकते हैं। उनको वियोग वेदनायें पत्थर को भी द्रवीभूत करती हैं, किन्तु इस सिद्धान्त का अनुभव कराती हैं कि 'प्रेम की पीड़ायें बड़ी मधुर होती हैं।'

       (Love's pain is very Sweet )
       

महाप्रभु वल्लभाचार्य का सिद्धान्त इन्हीं युगल मूर्तियों पर अवलम्बित है। इसी लिये वह इतना हृदयग्राही, मनोहर और व्यापक है कि वही विविध विदेशी भाव-प्रवाह में बहती हुई हिन्दूजनता का प्रधान पोत बना । उनके इस लोक मोहक सिद्धान्त के मूर्तिमन्त अवतार चैतन्य देव थे। यह भी हिन्दू जनता का सौभाग्य है कि वे भी उसी समय में अवतीर्ण हुए और अपने आचरणों द्वारा उन्हों ने ऐसा आदर्श उपस्थित किया, जिससे इस युगलमूर्ति के प्रेम प्रवाह में बंगाल प्रान्त निमग्न हो गया। उनके विषय में बङ्गाल प्रान्त के प्रसिद्ध विद्वान और प्रतिष्ठित लेखक दिनेशचन्द्र सेन बी० ए० क्या कहते हैं सुनियेः-

यदि चैतन्यदेव न जन्म लेते तो श्रीराधा का जलद-जाल को देखकर नेत्रों से अश्रु बहाना, कृष्ण का कोमल अंग समझ कर कुसुमलता का आलिंगन करना, टकटकी बाँधकर मयूर-मयूरी के कण्ठको देखते रह जाना,और नव-परिचय का सुमधुर भावावेश कवि की कल्पना बन जाता। एवं भाव के उछ्वास से उत्पन्न हुई उनकी विभ्रममय आत्म-विस्मृति आजकल के असरस युग में कवि-कल्पना कही जाकर उपेक्षित होती । किन्तु चैतन्य देव ने श्रीमद्भागवत और वैष्णव गीतों की सत्यता प्रमाणित कर दी। उन्हों ने दिखलाया कि यह विगट शास्त्र भक्ति की भित्ति पर, नयनों के अश्रु पर, और चित्त की प्रीति पर अचल भाव से खड़ा है। इस शास्त्र के