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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२२०

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( २०६ ) समान हैं। इस लिये मैं पहले उन्हों की चर्चा करता हूं बाद में उनकी भिन्नतायें भी बतलाऊंगा । इन दोनों भाषाओं में प्राकृत भाषा के समान संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिकतर नहीं देखा जाता। ये दोनों अर्द्धतत्सम विशेष कर तद्भव शब्दों ही पर अवलम्बित हैं । सुख, मन,धन जैसे थोड़े से संस्कृत के तत्सम शब्द ही इन में पाये जाते हैं। स्वरों में ऋ ऋ और ल तथा ल का प्रयोग होता हो नहीं । ऋके स्थानपर रि का ही प्रयोग प्रायः मिलता है। इनमें ऋतु और ऋजु रितु और ग्जुि बन जाते हैं। हाँ! कृपा जैसे शब्दों में संयुक्त ऋ का व्यवहार अवश्य देखा जाता है । इन दोनों में एक प्रकार से 'श', 'ण', और 'क्ष' का अभाव है। क्रमशः उनके स्थान पर स. न. और छ लिखा जाता है । केवल 'श्री' में शकार का उच्चारण सुरक्षित रहता है। प का प्रयोग होता है. पर पढ़ा वह ख जाता है। युक्त विकर्ष इनका प्रधान गुण है । अर्थात संयुक्त वर्णों को ये अधिकतर सस्वर कर लेती हैं, जैसे सर्व को सम्ब. गर्व को गरब, कर्म को करम. धर्म को धरम, स्नेह को सनेह इत्यादि । ऊर्ध्वगामी रेफ या रकार अवश्य सस्वर हो जाता है, परन्तु जो रकार उर्ध्वगामी नहीं पाद लग्न होता है वह प्रायः संयुक्त रूप हो में देखा जाता है, विशेष कर वह जो आदि अक्षर के साथ सम्मिलित होता है. जैसे क्रम इत्यादि। ऐसे ही कोई कोई संयुक्त वर्णसस्वर नहीं भी होता जैसे अस्त का स। यह देखा जाता है कि संयुक्त वर्ण को जहाँ सस्वर करने से शब्दार्थ भ्रामक हो जाता है वहाँ वह सुर-क्षित रह जाता है जैसे यदि क्रम को करम और अस्त को असत लिख दिया जाय तो जिस अर्थ में उनका प्रयोग होता है उस अर्थ की उपलब्धि दुस्तर हो जाती है। दोनों में जितने हलन्त वर्ण संस्कृत के आते हैं वे सब सस्वर हो जाते हैं, जैसे वग्न का न इत्यादि । ब्यंजनोंका प्रत्येक अनुनासिक अथवा पंचम वर्ण दोनोंहीमें अनुस्वार बन जाता है जैसे अङ्क, कलङ्क, पङ्कज, इत्यादि का क्रमशः अंक, कलंक पंकज लिखा जायगा । इसी प्रकार चञ्चल, सञ्चय, किञ्चित इत्यादि क्रमशः चंचल संचय और किंचित हो जाँयगे । कण्टक, खण्डन, मण्डन. पण्डितका रूप क्रमश कंटक : खंणडन, मंडन. पंडित होगा। आनन्द. अंत और सन्तका रूप क्रमशः आनंद. अंत और संत हो