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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२३५

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भाषा में गृहीत होने लगे थे। इस कारण इन कवियों की रचनाओं में सँस्कृत के तत्सम शब्द भी पाये जाते हैं। इन प्रेम मार्गी कवियों में प्रधान मलिक मुहम्मद जायसी हैं। अतएव मैं उन्हीं की रचना को ले कर यह देखना चाहता हूं कि वे किस प्रकार की हैं। आवश्यकता होने पर अन्य कवियों की रचनाओं पर भी दृष्टि डालने का उद्योग करूंगा। पदमावत के जिन पद्यों को मैंने ऊपर उद्धृत किया है उन्हें देखिये। मैं पहले लिख आया हूं कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों अधिकतर तद्भव शब्दों में लिखी जाती हैं। उनके पद्यों में यह बात स्पष्ट दिखाई देती है। तत्सम शब्द उनमें 'काल', 'दान', 'बहु' 'आदि', 'संसार', 'प्रेम', 'नाथ', 'सूर' इत्यादि हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय संस्कृत के तत्सम शब्द हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। मैं यह भी बतला आया हूं कि इन दोनों भाषाओं में पंचम वर्ण अनुस्वार के रूप में लिखे जाते है; कंत, कंठ, अंत और अंग इस बात के प्रमाण हैं। इन दोनों भाषाओं का नियम भी यह है कि इनमें संयुक्त वर्ण सस्वर हो जाते हैं, 'अरथ', 'अगिन','सरग', 'मारग', 'रतन' आदि में ऐसा ही हुआ है। यह भी नियम मैं ऊपर बतला आया हूं कि इन दोनों भाषाओं में शकार का सकार और णकार का नकार और क्षकार का छकार हो जाता है। 'दसा और ससि' का 'स', 'पुन्न', का 'न' और 'छार' का छ ऐसे ही परिवर्त्तन हैं। इन- दोनों भाषाओं का यह नियम भी है कि प्रथमा द्वितीया, षष्ठी, सप्तमी के कारक चिन्ह प्रायः लोप होते रहते हैं। इन पद्यों में भी यह बात पाई जाती है। 'आज सूरदिन अथयो', 'आज ग्यनि ससि बूड', और रहा न कोई संसार' में सप्तमी विभक्ति लुप्त है। 'दिन में' या दिनमँह रयनि में या 'रयनि मँह' और 'संसार में' या संसार मँह' होना चाहिये था। 'हम गल लायो' में द्वितीया का 'को', 'लागो कंठ' में तृतीया का 'से या सों नदारद है। 'गगन नखत जो जाहिं न गने' और 'रोम रोम मानुस तनु' ठाढ़े, में षष्ठी विभक्ति का लोप है 'गगन नखत और मानुस तनु के दोच में सम्बन्ध-चिन्ह की आवश्यकता है। काल आइ दिखराई सांटी', 'जियत कंत तुमहम गल लायीं' इन दोनों पद्यों में प्रथमा विभक्ति नहीं आई है।