पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२४०

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वतलाइये, 'प्रेत' के स्थान पर 'परीत' 'दैत्य' के स्थान पर 'दईत' 'सृष्टि' के स्थान पर सिहिटि 'हाथ' के स्थान पर हाथो', 'कृष्ण' के स्थान पर 'किरसुन', 'शार्दुल' के स्थान पर 'सदुर', भस्म के स्थान पर 'भसमंतू', 'पंखी' के स्थान पर 'पखी', 'तिनका' के स्थान पर 'तिनउर', ऊढ़ा'‌ के स्थान पर 'उड़', और आदो' के स्थान पर आदी लिखना कहां तक संगत है, आप लोग स्वयं इसका विचार सकते हैं। इस प्रकार के प्रयोगों का अनुमोदन किसी प्रकार नहीं किया जा सकता। उनको चारणों के ढंग पर भी कुछ शब्दों का व्यवहार करते देखा जाता है जिनमें राजस्थानी की रंगत पाई जाती है। नीचे कुछ पद्य ऐसे लिखे जाते हैं जिन में इस प्रकार के शब्द व्यवहृत हैं। शब्द चिन्हित कर दिये गये हैं:

दीन्ह रतन बिधि चारि नैन बैन सर्वन्नमुख
गंग जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ।
हँसत दसन अस चमके पाहन उठे छरकि।
दरिऊं जोन कैमका, फाट्या हिया दरक्कि।
'सुक्ख सुहेला उग्गवै दुःख झरै जिमि मेंह।'
'बीस सहम घुम्मरहिं निसाना।'
जौ लगि सधै न तप्पु. करै जो मीस कलप्पु'

ग्रामीणता के दोष से तो इनका ग्रन्थ भरा पड़ा है। इन्होंने इतने ठेठ ग्रामीण शब्दों का प्रयोग किया है जो किसी प्रकार बोध सुलभ नहीं। ग्रामीण शब्दों का प्रयोग इसलिए सदोष माना गया है कि उनमें न ना व्यापकता होती है और न वे उतना उपयोगी होते हैं जितना कविता की भाषा के लिये उन्हें होना चाहिये देखा जाना है, मलिक मुहम्मद जायसी ने इसका विचार बहुत कमकिया है। कहीं कहीं उनकी भाषा बहुत गँवारी हो गयो है जो उनके पद्यों में अरुचि उत्पन्न करने का कारण होती है नीचे लिखे पद्यों के चिन्हित शब्दों को देखिये: