पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२५२

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( २३८ ) चित्रण इतना सुन्दर और स्वाभाविक है कि हिन्दी साहित्य को उसका गर्व है। कुछ लोगों की सम्मति है कि संसार के साहित्य में ऐसे अपूर्व वाल- भावों के चित्रण का अभाव है । मैं इसपर अपनी ठीक सम्मति प्रकट करने में असमर्थ हूं. परन्तु यह अधिकार के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा में ऐसा वर्णन तो है ही नहीं, परन्तु भारतीय अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी वैसा अपूर्व वर्णन उपलब्ध नहीं होता। उनकी विनय और प्रार्थना सम्बन्धी रचनायें भी आदर्श हैं और आगे चल कर परवर्ती कवियों के लिये उन्होंने मार्ग-प्रदर्शन का उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं इस प्रकार के कुछ पद नीचे लिखता हूं। उनको देखिये कि उनमें किस प्रकार हृदय खोल कर दिखलाया गया है, उनको भाषा को प्राञ्जलता और सरसता भी दर्शनीय है।

१-जनम सिरानो ऐसे ऐसे।
  कै घरघर भरमत जदुपति बिन कै सोवत के बैसे ।
  कै कहुँ खान पान रसनादिक कै कहुँ बाद अनैसे।
  कै कहुँ रंक कहं ईसरता नट बाजीगर जैसे।
  चेत्यो नहीं गयो टरि अवसर मीन बिना जल जैसे।
  अहै गति भई सूर की ऐसी स्याम मिलैं धौं कैसे।
'२-प्रभु मोरे औगुन चित न धरो।
  समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो।
  एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।
  जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो।
  एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो।
  पारस गुन औगुन नहिं चितवै कंचन करत खरो ।
  यह माया भ्रम जाल कहावै सूरदास सगरो।
  अबकीबार मोहिं पार उतारो नहिं प्रन जात टरो।