पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२८०

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जी ने अपने ग्रन्थों में से रामायण की मुख्य भाषा अवधी रखी है । जानकी मंगल, राम लला नहछू, बरवै रामायण और पार्वती मंगल की भाषा भी अवधी है । कृष्ण गीतावली को उन्होंने शुद्ध व्रजभाषा में लिखा है। अन्य ग्रन्थों में उन्होंने बड़ी स्वतंत्रता से काम लिया है। इनमें उन्होंने अपनी इच्छा के अनुसार यथावसर व्रजभाषा और अवधी दोनों के शब्दों का प्रयोग किया है।

 गोस्वामीजी की यह विशेषता भी है कि उनका हिन्दी के उस समय के प्रचलित छन्दों पर समान अधिकार देखा जाता है। यदि उन्होंने दोहा-चौपाई में प्रधान-ग्रन्थ लिख कर पूर्ण सफलता पायी तो कवितावली को कवित्त और सवैया में गीतावली और विनय-पत्रिका को पदों में लिख कर मुक्तक विषयों के लिखने में भी अपना पूर्ण अधिकार प्रकट किया। उनके बरवे भी बड़े सुन्दर हैं और उनकी दोहावली के दोहे भी अपूर्व हैं। इस प्रकार की क्षमता असाधारण महाकवियों में ही दृष्टिगत होती है। मैं इन ग्रन्थों के भी थोड़े से पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ। उनको पढ़िये और देखिये कि उनमें प्रस्तुत विषय और भावों के चित्रण में कितनी तन्मयता मिलती है और प्रत्येक छन्द में उनकी भाषा का झंकार किस प्रकार भावों के साथ झंकृत होता रहता है । विषयानुकूल शब्द-चयन में भी वे निपुण थे। नोचे के पद्यों को पढ़ कर आप यह समझ सकेंगे कि भाषा पर उनका कितना अधिकार था। वास्तव में भाषा उनकी अनुचरी ज्ञात होती है। वे उसे जब जिस ढंग में ढालना चाहते हैं ढाल देते हैं:-

४.-बर दंत की पंगति कुद कली

       अधराधर पल्लव खोलन की ।

चपला चमकै घन बीच जगै

       छबि मोतिन माल अमोलन की।

घुंघरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर

      कुण्डल लोल कपोलन की ।