पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२८१

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( २६७ ) निवछावर प्रान करै तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलन को। ५-हाट बाट कोट ओट अटनि अगार पौरि खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्हों अति आगि है। आरत पुकारत सँभारत न कोऊ काहू व्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चल्यो भागि है। बालधी फिरावै बार बार झहरावै झरें दियाँसी लंक पघिराई पाग पागि है । तुलसी विलोकि अकुलानी जातुधानी कहै चित्रहूं के कपिसों निसाचर न लागि है। कवितावली ६-पौढ़िये लाल पालने हो झुलावी। बाल बिनोद मोद मंजुल मनि किलकनि खानि खुलावौं । तेइ अनुराग ताग गुहिये कहूँ। मति मृगनैनि बुलावौं । तुलसी भनित भली भामिनि उर सो पहिराइ फुलावी । चारु चरित रघुवर तेरे तेहि मिलि गाइ चरन चित लायौं। ७-बैठी सगुन मनावति माता। कब अइहैं मेरे बाल कुमल घर कहहु काग फुरि बाता ।