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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२८१

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निवछावर प्रान करै तुलसी
बलि जाउँ लला इन बोलन को।
५—हाट बाट कोट ओट अटनि अगार पौरि
खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्हों अति आगि है।
आरत पुकारत सँभारत न कोऊ काहू
व्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चल्यो भागि है।
बालधी फिरावै बार बार झहरावै झरें
बूंदियाँसी लंक पघिराई पाग पागि है।
तुलसी विलोकि अकुलानी जातुधानी कहै
चित्रहूं के कपिसों निसाचर न लागि है।

कवितावली

६—पौढ़िये लाल पालने हौं झुलावौं।
बाल बिनोद मोद मंजुल मनि
किलकनि खानि खुलावौं।
तेइ अनुराग ताग गुहिबे कह
मति मृगनैनि बुलावौं।
तुलसी भनित भली भामिनि
उर सो पहिराइ फुलावौं।
चारु चरित रघुवर तेरे तेहि
मिलि गाइ चरन चित लाबौं।
७—बैठी सगुन मनावति माता।
कब अइहैं मेरे बाल कुसल घर
कहहु काग फुरि बाता।