पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२८२

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( २६८ ) दूध भात की दोनी दैहों सोने चोंच महौं । जब सिय सहित बिलोकि । नयन भरि राम लखन उर लै हौ। अवधि समीप जानि जननी जिय अति आतुर अकुलानी । गनक बुलाइ पाय परि पूछत प्रेम मगन मृदु बानी । तेहि अवसर कोउ भरत निकट ते समाचार लै आयो । प्रभु आगमन सुनत तुलसी मनो मरत मीन जल पायो । गीतावली ८-यावरो रावरो नाह भवानी। दानि बड़ो दिन देत दये । बिनु बेद बड़ाई भानी । निज घर की बर बात बिलोकहु हो तुम परम सयानो । सिवकी दई संपदा देखत श्री सारदा सिहानी । जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नहीं निसानी। तिन रंकन को नाक सँवारत हौं आयों नकवानी ।