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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२८३

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दुख दीनता दुखी इनके दुख
जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौँ पिये
औरहि भीख भली मैं जानी।
प्रेम प्रसंसा विनय व्यंग जुत
सुनि विधि की बर बानी।
तुलसी मुदित महेस मनहि मन
जगत मातु मुसकानी।
९—अबलौं नसानी अब ना नसैहौं।
राम कृपा भव निसा सिरानी
जागे फिर न डसैहौं।
पायो नाम चारु चिंतामनि
उर कर ते न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी
चित कंचनाहिँ कसैहौं।
परवस जानि हस्यों इन इन्द्रिन
निज बस ह्वै न हंसैहौं।
मन मधु कर पन करि तुलसी
रघुपति पद कमल वसैहौं।

विनयपत्रिका


१०—गरब करहु रघुनन्दन जनि मन माँह।
देखहु आपनि मूरति सिय कै छाँह।
डहकनि है उँजियरिया निसि नहिं घाम
जगत जरत अस लागइ मोहि बिनु राम।