. "संस्कृत प्रकृति से निकली भाषा ही को प्राकृत कहते हैं"
अब दूसरे सिद्धान्त वालों की बात मुनिये । इनमें अधिकांश वौद्ध और जैन विद्वान हैं । अपने ‘पयोग सिद्धि' ग्रन्थ में कात्यायन लिखते हैं-
“सा मागधी मूल भामा नरायायादि कप्पिका'
ब्राह्मणो च स्मुतालापा सम्बुद्धा चापिभासरे।
आदि कल्पोत्पन्न मनुष्यगण, ब्राह्मणगण, सम्बुद्धगण, और जिन्होंने कोई वाक्यालाप श्रवण नहीं किया है. ऐसे लोग जिसके द्वारा बातचीत करते ३. वही मागधी मूल भाषा है।
‘पतिसम्विध अत्य, नामक ग्रन्थ में लिम्वा है-
"मागधी भापा देवलोक, नग्लोक, प्रेतलोक. और पशुजाति में सर्वत्र प्रचलित है । किरात, अन्धक, योणक, दामिल. प्रभृति भापाय परिवर्तन शील हैं, किन्तु मागधी आय और ब्राह्मणगण की भाषा है। इसलिये अपग्विननीय और चिरकाल में समानरूपण व्यवहत है।
महारूपसिद्धिकार लिम्बने हैं.--' मागधिकाय म्वभाव निमनिया" मागधी म्वाभाविक (अर्थात मूलभापा) है।
अपने पाली भापाक व्याकरण की अंग्रेज़ी भूमिका में श्रीयुत मनीग चन्द्र विद्याभूषण लिग्यते हैं
- "धीरे धीरे मागधी में जो इस देहा बोली जाती थी. बहुत सं परिवर्तन हुये, और आजकल की भाषायें. जैन बंगाली, मरहटो, हिन्दी और उडिया इत्यादि उसी में उत्पन्न हुई है"।
जैनेरा अर्धमागधीभाषा केई आदि भाषा वलियामने करेन
जैन लोग अर्द्ध मागधी भाषा को ही आदि भाषा मानते हैं"
In course of time this Magadhat the spoken language of the country underwent immense changes, and gave rise to the modern vernaculars such as Bengali, Marabati, Hindi, Uriya. etc.