पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२९४

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चंदन चढ़ाये चारु सुन्दर शरीर सब,
राखी जनु सुभ्र सोभा बसन बनाई सी।
शारदा सी देखियत देखो जाइ केशो राइ,
ठाढ़ी वह कुँवरि जुन्हाई मैं अन्हाई सी।

२—मन ऐसो मन मृदु मृदुल मृणालिका के,

सूत कैसो सुर ध्वनि मननि हरति है।
दार्यो कैसो बीज दाँत पाँत से अरुण ओंठ,
केशोदास देखि दृग आनँद भरति है।
एरी मेरी तेरी मोहिं भावत भलाई तातें,
बूझतहौं तोहि और बूझति डरति है।
माखन सी जीभ मुखकंज सी कोमलता में,

काठ सी कठेठी बात कैसे निकरति है।
३—किधौं मुख कमल ये कमला की ज्योति होति

किधौं चारु मुखचन्द्र चन्द्रिका चुराई है।
किधौं मृगलोचन मरीचिका मरीचि कैधौं,
रूप की रुचिर रूचि सुचि सों दुराई है।
सौरभ की सोभा की दलन घन दामिनी की,
केशव चतुर चित ही की चतुराई है।
एरी गोरी भोरी तेरी थोरी थोरी हांसी मेरे,

मोहन की मोहिनी की गिरा की गुराई है।
४—बिधि के समान हैं विमानी कृत राजहंस,
बिबुध बिवुध जुत मेरु सो अचल है।