सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२८०)


चंदन चढ़ाये चारु सुन्दर शरीर सब, राखी जनु सुभ्र सोभा बसन बनाई सी । शारदा सी देखियत देखो जाइ केशो राइ, ठाढ़ी वह कुँवर जुन्हाई में अन्हाई सी ।

२ - मन ऐसो मन मृदु मृदुल मृणालिका के, कैसो सुर ध्वनि मननि हरति है । सूत दारयो कैसो बोज दाँत पाँत से अरुण ओंठ, केशोदास देखि दृग आनँद भरति है । एरी मेरी तेरी मोहिं भावत भलाई तातें, बूझतहौं तोहि और बूझति डरति है । माखन सी जीभ मुखकंज सी कोमलता में, काठ सी कठेठी बात कैसे निकरति है ।

३ - कीघौं मुख कमल ये कमला की ज्योति होति कीघौं चारु मुखचन्द्र चन्द्रिका चुराई है । कीघौं मृगलोचन मरीचिका मरीचि कैधौं, रूप की रुचिर रुचि सुचि सों दुराई है। सौरभ की सोभा की दलन घन दामिनी की, केशव चतुर चित ही की चतुराई है । एरी गोरी भोरी तेरी थोरी थोरी हांसी मेरे, मोहन की मोहिनी की गिरा की गुराई है ।

४ - विधि के समान हैं विमानी कृत राज हंस, विबुध विवुध जुत मेरु सो अचल है ।