पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३०७

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जोगिण हुइ जंगल सब हेरू तेरा नाम न पाया भेस।
तेरी सूरत के कारणे धर लिया भगवा भेस ।
मोर मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस ।
मीरा को प्रभु गिरधर मिलि गये दुना बढ़ा सनेस ।

सरस कविता के लिये इस शताब्दी में अष्ट छाप के वैष्णवों का विशेष स्थान है। इनमें से चार महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे-सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, तथा कुंभनदास । और शेष चार नन्ददास, चतुर्भुजदास. छोतस्वामी तथा गोविन्दस्वामी, गोस्वामी विठ्ठल नाथ के प्रमुख सेवकों में से थे। इनमें से सूरदासजी की रचनाओं को आपलोग देख चुके हैं, अन्यों की रचनाओं को भी देखियेः-

कृष्णदासजी जाति के शूद्र थे किन्तु अपने भक्ति-वल से अष्टछाप के वैष्णवों में स्थान प्राप्त किया था। उनके रचित (१) 'जुगलमान चरित्र'(२) 'भक्तमाल पर टीका (३) भ्रमरगीत' और (४) प्रेम सत्व निरूप'नामक ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। उनका रचा एक पद देखिये:-

"मोमन गिरधर छवि पै अटक्यो।
ललित त्रिभंग चाल पै चलि
कै चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो।
सजल श्याम घन बरन लीन है
फिरि चित अनत न भटक्यो।
कृष्णदास किये प्रान निछावर
यह तन जग सिर पटक्यो।

परमानन्दजी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे । इनमें भक्ति-विषयक तन्मयता बहुत थी। 'परमानंद सागर' नामक इनका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इनका एक शब्द सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में भी है। वह यह है:-