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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३०९

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"जो पै चोप मिलन की होय।
तो क्यों रहै ताहि बिन देखे लाख करौ किन कोय।
जो ए बिरह परस्पर ब्यापै जो कछु जीवन बनै।
लोक लाज कुल की मरजादा एकौ चित्त न गनै।
कुभनदास जाहि तन लागी और न कछू सुहाय।
गिरधर लाल तोहि बिन देखे छिन छिन कलप बिहाय।"

अष्ट छाप के वैष्णवों में कवित्व शक्ति में सूरदास जी के उपरान्त नंद-दास जी का ही स्थान है। आप की सरस रचनाओं पर ब्रजभाषा गर्व कर सकती है। कहा जाता है कि आप गोस्वामी तुलसीदास जी के छोटे भाई थे। इस की सत्यता में संदेह भी किया जाता है। जो हो, परन्तु पद-लालित्य के नाते वे गोस्वामी जी के सहोदर अवश्य हैं। हिन्दी संसार में उनके विषय में एक कहावत प्रचलित है-"और कवि गढ़िया नंददास जडिया ।' मेरा विचार है कि यह कथन सत्य है। उन्होंने अठारह ग्रन्थों की रचना की है। ‘रास पंचाध्यायों से इनकी कुछ रचनायें यहां उधृत की जाती हैं:-

“परम दुसह श्री कृष्ण बिरह दुख व्याप्योतिनमें।
कोटि बरस लगि नरक भोग दुख भुगते छिनमें।
सुभग सरित के तीर धीर बलबीर गये तहँ।
कोमल मलय समीर छविन की महा भीर जहँ।
कुसुम धूरि धूँधरी कुंज छवि पुंजनि छाई।
गुंजत मंजु मलिंद बेनु जनु बजत सुहाई।
इत महकति मालती चारू चम्पक चित चोरत।
उत घनसारु तुसारू मलय मंदारु झकोरत।
नव मर्कत मनि स्याम कनक मनि मय ब्रजबाला
वृन्दाबन गुन रीझि मनहुं पहिराई माला।"